Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा
यह व्यवस्था बन जाती है। इसका विशद विचार घवला पु० १४ में किया है। यहाँ पृ० २७ में बन्धमें कौनसा सम्बन्ध विवक्षित है इसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है
को एत्थ संबंधी पेपदे संजोगलक्सयो समाक्सो वा ? तत् संजोयो दुविहो--- देसपच्या सतिक गुणगण्यासत्तिको चेदि तस्थ देसपच्चासनिकभी शाम दोपणं दव्वाणमवयवकास काऊण जमच्छ सो देखयच्चासत्तिको संजोगो । गुणे िजमण्याहरणं सो गुणपश्यासक संजोगो समवायसंजोगो सुगमो ।
शंका-यहाँ कौन-सा सम्बन्ध लिया गया है ?
समाधान-संयोग दो-देशप्रत्यासतिकृत और गुणप्रत्यासत्तिकृत दो द्रव्योंके अवयवोंका स्पर्श करके रहना यह देवप्रत्यासत्तिकृत सम्बन्ध है तथा गुणों द्वारा जो एक-दूमरेका अनुसरण करना यह गुणप्रत्यासतिकृत सम्बन्ध है। समवायसम्बन्ध सुगम है।
इससे स्पष्ट है कि स्कन्ध अवस्थामें वे दोनों पुद्गल सर्वथा एक नहीं हो जाते, किन्तु द्रव्य, क्षेत्र काल और भावरूपसे वे अपनी-अपनी सत्ता रखते हुए भी क्षेत्रप्रत्यासत्ति और गुणप्रत्यासत्तिको प्राप्त हो जाते हैं. इसलिए स्कन्धव्यवस्था बन जाती है।
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अतः स्वरूपसत्ता सबकी भिन्न-भिन्न है । फिर भी उनका देशकृत और भावकृत ऐसा परिणाम होता है जिससे उनमे बम्व्यवहार होने लगता है। यही लय कहलाता है के वध स्वदेश और स्कन्धप्रदेश में भेद इसी आधार पर अगममे स्वीकार किये गये हैं। यही कारण है कि पंचास्तिकाय गाया ७६ में यथार्थ में परमाणुको हो पुद्गल कहा गया है तथा सब प्रकारके स्कन्धों को पुद्गल कहना इसे व्यवहार बतलाया गया है । तत्त्वार्थश्लोकातिक पृ० ४०६ में परमार्थसत् कहा है बहु देवप्रत्यासत्ति और भावप्रत्यासत्तिको ध्यान में रखकर ही कहा है। प्रत्यासति और भावप्रत्यासत्तिका होना इसका नाम ही एकस्वपरिणाम है। इसके सिया एकर परिणामको अन्य कुछ मानना दो द्रव्योंको सत्ताका अपलाप करना है ।
स्कन्धकी जो
मोंको
।
इस परसे अपर पक्ष स्वयं निर्णय कर ले कि वो भ्यों किया जानेवाला बन्धव्यवहार साधार है या कल्पनारोपित वस्तुतः उस पक्षने उपचारकसनको आकाश कुसुमके समान फल्पनारोपित मान लिया यही घारणा उस पक्ष को बदलनी है। ऐसा होनेसे कहाँ कोन कथन किस रूप में किया गया है इसके स्पष्ट होने में देरी न लगेगी ।
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प्रथम उत्तर में हमने 'व्यवहारनयका आध करवादि वचन लिखा था। इस पर प्रतिशंका २ में यह पृच्छा की गई थी कि 'व्यवहारनयका आश्रय लेकर बन्ध होता है इसमें व्यवहारमय और उसकी वन्य होने में यताका क्या आशय है ? इसका खुलासा करते हुए हमने पिछले उत्तर लिखा था कि 'व्यवहार नयका आश्रय लेकर इसका अर्थ व्यवहार नयको अपेक्षा इतना ही है। इसीको अपर उपहारका आश्रय कर इस पदका हटाना और 'व्यवहार नवकी अपेक्षा' इस पदको जोड़ना लिख रहा है। नई बात इस प्रश्न में नहीं कही गई है। जो कुछ दुहराया गया है उसका उत्तर द्वितीय प्रश्न के प्रसंग अनन्तर पूर्व ही लिए आये हैं।
अन्य कोई समाधान के