Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका ११ और इसका समाधान उपर्युक्त कथनसे यह बात विशदरूपसे स्पष्ट हो जाती है कि कालादि आश्रय निमित्तकारणोंको विवक्षा और अविवक्षा मात्रसे उल्लिखित पर्यायभेद नहीं बन सकता है, किन्तु निमितकारणोंको विविषतासे ही दोनों पकती योका : सन् द युक्तिसंगत सिद्ध होता है। निमित्त कारणोंकी यह द्विविधता निमितों की प्रेरकता और अप्रेरकताके आश्रय है। इस तरह जिस परिणमनमें उपादानके साथ कर्ता-करण आदि प्रेरक निमित्तोंका ब्यापार यावश्यक नहीं है उसे स्वप्रत्यय परिणमन कहना चाहिये और जिस परिणमन में उपादानके साथ कर्ता-करण आदि प्रेरक निमित्तोंका व्यापार आवश्यक हो उसे स्वपरप्रत्यय परिणमन मानना चाहिये ।
शंका ११ मूल प्रश्न-परिणमनके स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय दो भेद हैं, उनमें वास्तविक अन्तर क्या है ?
प्रतिशंका २ का समाधान प्रवचनगार गाया १३ को टोकाका उल्लेख कर हम पिछले समाधान में यह बता चुके हैं कि पर्याय दो प्रकारकी होती हैं-(१) स्वभावपर्याय (२) विभावपर्याय ।
शुद्ध जोव, परमाणु व धर्म आदि चार द्रव्योंमें अपने २ अनन्त अगुरुलधुगुणों द्वारा प्रतिसमय षडगुणी हानि-वृद्धिरूप उत्पादव्यय होते हैं, वे स्वभावरूप पर्याय हैं और संसारी जीवोंके ज्ञानमें इन्द्रिय, आलोक, मानावरण क्षयोपशमादि निमित्तोंकी, तथा पुद्गल स्कंधोंमें रूपबादिके निमित्तोंकी अपेक्षासे अपने उपादानके साथ होनेवाली पर्याय विभावपर्याय है।
इन दोनों प्रकारको पर्यायोंग काल आदि जो उदासीन निमित्त है उनको विवक्षा न करके प्रतिसमय जो अगुरुलधुकृत पर्याय होती है उन्हें स्वप्रत्यय पर्याय कहा है। उदाहरणार्थ-धर्माधर्मादि द्रव्यों में काल आदिके साथ-साथ गतिहेतुत्व-स्थितिहेतृत्व आदि धर्मोके आश्रयसे जीव और पुद्गलोंमें जो गति-स्थिति आदि पर्याय होती है, वे भी अपनी विभिन्नरूप गति स्थिति आदिसे धर्म अधर्म द्रव्योंके पर्याय परिवर्तन में व्यवहारसे आश्रय निमित्त है।
___ इसो आशयको ध्यान में रखकर श्री अकलंकदेव तथा पूज्यपाद स्वामीने राजवातिक तथा सर्वार्थसिद्धिके अध्याय ५ सूत्र ७ मे यह वचन लिखा है
द्विविधः उत्पादः-स्वनिमित्तः परप्रत्ययश्च । स्वनिमित्तस्साबस्- अनन्तानां अगुरुलवगुणाना भागमप्रामाण्यात अभ्युपगम्यमानानां षट्स्थानपतिखया वृद्धचाहान्या च प्रयतमानानां स्वभावादेषा उत्पादो व्ययश्च | परप्रत्ययोऽपि अश्वाइगति-स्थिति-अवगाहन हेतुत्वात् आगे-क्षणे तेषां भेदात् तद्हेतुत्वं अपि भिवं इति परप्रस्ययापेक्षा उत्पादो विनाशश्च व्यपहियते।।
अर्प-उत्पाद दो प्रकारका है-स्यनिमित्तक और परनिमित्तक । आगम प्रामाण्यसे स्वीकृत अनन्त अगुरुलघुगुणोंमें षट्गुणो हानि-बुद्धिरूपसे प्रवर्तमान उत्पाद-व्यय स्वभायसे होता है वह स्वनिमित्तक उत्पाद