Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका १० और उसका समाधान द्रव्यलिंगको स्वीकार करते समय ही हो जाती हो ऐसा नहीं है। किन्तु जब उपादानके अनुसार भावलिंग प्राप्त होता है तब उसका निमित्त द्रव्यलिग रहता ही है।'
अपर पक्ष तत्वज्ञानको चाहे जितना गौण करनेका प्रयत्न करके बाह्य क्रियाकांडका चाहे जितना समर्थन क्यों न करे और अपने इस प्रयोजनको सिद्धिके लिए समयसारके टोका वचनांको उनके यथार्थ अभिप्रायकी ओर ध्यान न देकर भले ही उद्धृत करे, परन्तु इतने मात्र मोक्षमार्गम केवल क्रियाकांडको महरव नहीं मिल सकता, क्योंकि समयसारकी उक्त गाथा ७२ की आस्मल्याति टोकामें जो 'अज्ञान' और 'आसन्न पदोंका प्रयोग हुआ है वह राग-पादि भावों के अर्थमें ही हुआ है. बाह्य क्रियाकांडके अर्थमें नहीं । चारित्रका लक्षण करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसारमें लिखते है
चारित्त' खलु धम्मो धग्मो जो सो समो त्ति णिहिटो ।
मोहनयोहविहीणो परिणामो अपणो ३ समो ॥ ७ ॥ चारित्र बाम्तन में कम है. लो मर्म मामापोगा जिन्द्रदेव रहा है और साम्प माह तथा क्षोभसे रहित आत्माका परिणाम है ।।७।।
इराकी टीका करते हुए आचार्य अभृत चन्द्रने और भो भावपूर्ण शब्दों द्वारा चारित्रकी व्याख्या की है। बे लिखते हैं
स्वरूपे चरणं चारित्रम् । स्वसमप्रवृत्तिरित्यर्थः । तदेव वस्तुस्वभावत्वाबू मः। शुद्धचैतन्यप्रकाशनमित्यर्थः ।
चारित्र क्या है इसको सर्वप्रथम व्याख्या आचामेनर्यने को-स्वरूप सरणं चारित्रम्'-स्वरूपमें रमना चारित्र है । स्वरूपमें रमना किस वस्तुका नाम है इसे स्पष्ट करते हुए वे कहते है-'स्वसमय प्रवृत्तिरित्यथ:--- जो रागद्वेयादि विभावभावों और समस्त परभावोंसे रहित ज्ञायकस्वरूप आत्मतत्व है उसमें तन्मय हो प्रवर्तना स्वसमयप्रवृत्ति है। ऐसा करनेमे क्या होगा इसका उत्तर देते हुए वे पुन: लिखते है-'तदेव वस्तुस्व. भाववादम:'-स्वस मयप्रवृत्तिसे जो स्वरूपलाभ होता है वही वस्तुका स्वभाव होने के कारण धर्म है। कोई कहे कि ऐसे धर्म की प्राप्ति होने पर मी आत्माको क्या लब्ब माता आचार्य उत्तर देते हैं-'शुद्धचैतन्य प्रकाशनमिन्यथः'-इस तरह जो धर्मको प्राप्ति होती है वही तो शुद्ध चैतन्यका प्रकाशन है । वास्तवम देखा जाय तो यही आत्माका सच्चा लाभ है।
या अपर पक्ष यह बतला सकता है कि ऐसे स्वरूपरमणताका चारित्रको प्राप्ति तत्त्वज्ञानके बिना कभी हो सकती है। यदि कहो कि तत्त्वज्ञानके अभ्यास विना स्वरूपरमणतारूप उक्त प्रकारके वारिपकी प्राप्ति होना पिकालम संभव नहीं है तो फिर हमारा निवेदन है कि तत्त्वज्ञानका उपहास आईए, हम आपका स्वागत करते हैं। हम और आप मिलकर ऐसा मार्ग बनाएं जो तस्वज्ञानपूर्वक चारित्रकी प्राप्तिमें सहायक बने । अस्तु,
द्वितीय चर्चनीय विषयका स्पष्टीकरण करते हुए हमने परमागममें 'बन्ध' पदका म्या अर्थ स्वीकृत है इसका स्पष्टीकरण किया या । इसपर आपत्ति करते हुए अपर पश्वका कहना है कि 'परन्तु जब यह कहा जाता है कि उस विशिष्टतर परस्पर अवगाह में ही 'बध' का व्यवहार किया जाता है और यह मो कहा जाता है कि वह निमित्त नैमित्तिकभावके आधार पर ही होता है, फिर तो आपको दृष्टिसे यह कल्पनारोपिल ही