Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका १० और उसका समाधान
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नैमित्तिक मापसे विशिष्टतर अवगाह उपलब्ध नहीं होता। हाँ उनमें से जिनमें निमित-नमित्तिकभावसे विशिष्टतर अवगाह उपलब्ध होता है उनमें ही अन्धव्यवहार किया जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
'व्यवहारनयका आश्रय लेकर' इसका अर्थ 'व्यवहारनयकी अपेक्षा' इतना ही है। व्यवहारमय यह ज्ञानपर्याय है। दो द्रव्योंका निमित्त-नैमित्तिकभावसे जो विशिष्टतर परस्पर अवगाह होता है उसे ज्यवहारनयकी अपेक्षा बन्ध कहा है यह हमारे कथनका तात्पर्य है। और इसी अभिप्रायसे हमने मूल प्रश्नका उत्तर देते हुए यह वाक्य लिखा था 'यहाँ व्यवहारनयका आश्रय लेकर दो द्रव्योंके परस्पर निमित्तमासे जो विशिष्टतर परस्पर अवगाह होता है उसे बन्धरूपसे स्वीकार किया है।' इस वाक्यमें 'व्यवहारनयका आश्रय लेकर' इस नाक्यका 'व्यहारनय की अपेक्षा' ऐसा अर्थ करके उसको '
न से स्वीकार किया है। हम वाक्य के साथ सम्बन्ध कर लेने पर पूरे वाश्यका अर्थ स्पष्ट हो जाता है।
पृथक्-पृथक दो आदि परमाणों में स्वभाव पर्याय होती है जो एक समान भी हो सकती है और विसदृश भी हो सकती है। समा स्कन्धस्वरूप दो आदि परमाणुओंमें विभाव गर्याय होती है। नियम यह है कि बन्न होने पर यदि दो परमाणुओंका बन्ध हो तो हीन गुणवाला परमाणु दो अधिक गुणवाले परमाणुरूप परिणम जाता है, इसलिए प्रथणुक स्कन्धका सदशा परिणाम ही होता है। किन्तु मगो स्कन्ध मात्र परमाणुओंका बन्ध होकर ही नहीं बनते । बहससे स्कन्ध अनेक स्कन्धाके मेजसे भी बनते है, अतः उनमें सदृश और विसदृश दोनों प्रकारके परिणमन उपलब्ध होते हैं। जो सभोके अनुभवका विषय है । यही इनमे अन्तर है।
पिण्डरूप जगतको अवास्तविक शब्दका प्रयोग करना अमोत्पादक है। आगममै सत्ता दो प्रकारको मानी गई है -स्वरूपसत्ता और उपचरितसत्ता। स्वरूपसत्ताकी अपेक्षा प्रत्येक परमाणु स्वतन्त्र है, दो या दोसे अधिक परमाणु सर्वया एक नहीं हए है। किन्तु बन्च होनेगर उनमें जो एक पिण्डसना प्राप्त होती है वह उपचरित सत् है । अतएन केवली जिन जैसे स्वरूप सतको जानते है वैसे ही जगचरित मततो भी जानते हैं । वर्गणाखण्ड प्रकृति अनुयोगद्वारमें कहा भी है -
सई भगवं उप्पण्णणाप्पदरिसी संदेवासुरमाणुसस्स लोगस्स आगदि गदि चयणोधबाद बंधं मोवं इढि निदि अणुभागं तक्कं केलं माणी माणसियं भुत्त कदं पहिसविदं आदिकम्म अरहकम्मं सवलोए सम्व/बे सन्चभावे सम्मं समं जाणादि विहरदि त्ति ||१२||
अर्थ- उत्पन्न हुए केवलज्ञान और केवलदान से युक्त भगवान् स्वयं देवलोक और असुरलोकको साथ मनुष्य लोकको आगति, गति, चयन, उपपाद, बम, मोक्ष, वृद्धि, स्थिति, युति, अनुभाग, तर्क, कल, मन, मानसिक, भुक्त, कृत, प्रतिसेवित, आदिकर्म, अरहःकर्म, सब लोकों, राय जीवों और सब भावोंको सम्यक प्रकारसे युगपत् जानते हैं, देखते हैं और विहार करते है ।०२।