Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका १० और उसका समाधान
६१९
दिक तथा ज्ञानादिककी स्व ( उपादान ) तथा पर ( निमित्त ) इन दोनों के सहयोग से उत्पन्न होनेवाली पूर्व और उत्तर अवस्थाओं में आनेवाले तारतम्यके आधारपर दिखाई देनेवाले स्वभावविशेषरूप हैं ।
उक्त गायाकी यह टीका जीव तथा पुद्गलकी बंधपर्यावकी एवं धणुकादिरूप स्कन्धकी वास्तुविकताका उद्घोष कर रही है। लागे पंचास्तिकाय ग्रन्थका भी प्रमाण देखिये -
धावा संदेश य संपदेसा होंति परमाणू | इदि से चतुब्वियप्पा पुग्गलकाया मुणेयश्वा ॥ ७४ ॥
अर्थ-स्कन्ध स्कन्ध खण्ड, उन खण्डोके खण्ड और परमाणु इस तरह पुद्गल द्रव्योंको चाररूप समझना चाहिए।
श्लोकवार्तिक पृ० ४३० पर तस्वार्थसूत्र के 'अवणः स्कन्धाश्च' सूत्रकी व्याख्या करते हुए आचार्य विद्यानन्दिने लिखा है
नाण एवेत्येकान्तः श्रेयानू, स्कन्धानामशबुद्धी प्रतिभासनात । स्कन्धकान्तस्ततोऽस्त्विस्यपि न सम्यक् परमाणूनामपि प्रमाणाित् ।
"
अर्थ- पुद्गल द्रव्य केवल अणुरूप ही ऐसा एकान्त नहीं समझना चाहिये, कारण कि इन्द्रियां से स्कन्धों का भी ज्ञान होता है। केवल स्कन्धांको मान लेना भी ठोक नहीं है, कारण कि परमाणु भी प्रमाणसिद्ध पदार्थ हैं ।
इसी प्रकार तत्वार्थ सूत्र अध्याय ५ में 'भेदसंघातेभ्य उत्पद्यन्ते' (५ - २६ ) इस सूत्र द्वारा स्कन्धोंकी तथा 'भेदादणु: । ( ५- २७ ) इस सूत्रद्वारा अणुको उत्पत्ति बतलायी गयी है । अष्टशती और अष्टसहस्रीका भी प्रमाण देखिये --
कार्यकारणादेरभेदेकान्ते धारणाकर्षणादयः । परमाणूनां संघातेऽपि माभूवन् विभागवत् ॥६७॥
इसके आगे अष्टमी की पंक्तियों पहिये -
त्रिभक्तेभ्यः परमाणुभ्यः संहतपरमाणूनां विशेषस्योत्प सेर्धारणाकर्षणादयः संगच्छन्ते ।
- अष्टसहस्री पृष्ठ २२३ कारिका ६० को व्याख्या
दोनोंका अर्थ - कार्य और कारण में सर्वथा मभेद माननेमे परमाणुओंका स्वांध बन जाने पर धारण और आकर्षण नहीं होना चाहिये । अर्थात् परमाणु अकेले में धारण और आकर्षणरूप क्रिया होना जैसे सम्भव नहीं है उसी तरह संघातमें भी जम क्रियाका होना कार्य और कारणका अभेद माननेपर नहीं होगा। चूँकि पृथक् विद्यमान परमाणुओं की अपेक्षा संहत ( स्कन्धरूप) परमाणुओं में विशेषता आ जाती है, अतएव उनका धारण और आकर्षण संभव हो जाता है ।
ये सब प्रमाण पृथक् पृथक् पाये जानेवाले अणुत्रोंकी और उन अणुओं की बद्धता से निष्पन्न द्वणु कादि स्कंधों की वास्तविकताको सिद्ध करते हैं ।
बंध होनेपर एकत्व हो जाता है, अर्थात् दोनोंकी पूर्व अवस्थाका त्याग होकर एक तीसरी अवस्था उत्पन्न हो जाती है। श्री पूज्यपाद आचार्यमे सर्वार्थसिद्धिमें कहा भी है-