Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर ( खानिया) तत्त्वचर्चा कि 'केचली भगबान जैसे स्वरूपसत्को जानते है वैसे उपचरितसत्को भी जानते है । इस कारण आपके द्वारा दिया गया प्रकृति अनुयोगद्वारका सद्धरण भी आपके पक्षका समर्थन नहीं कर सकता है ।
अब थोड़ा आगम प्रतिपादित वस्तुव्यवस्था पर भी विचार कर लेना उपयुक्त जान पड़ता हैसर्व प्रथम प्रवचनसारकी गाथा ६७ को देखिये, वह क्या प्रतिपादन करती है
दन्वाणि गुणा तेसिं पज्जाया असण्णया भणिया ।
तेस गुण-पज्जयाणं अव्या दन्च ति उवदेशी ॥ इरा गाथामें आचार्यश्री ने द्रव्य, मण व पर्याय इन सबको अर्थ बतलाते हुए इन सभी का द्रव्यम समावेश किया है जो कि परमार्थरूपसे वस्तु है । टीकामें आचार्य अमृतचन्द्र ने इस बिषयको बहुत स्पष्ट करके दिखला दिया है । विस्तार होनेके भयसे यहाँ टीकाका उद्धरण नहीं दिया है, अत: वहाँ देखने का कष्ट कीजिये। अब ज्ञेयतत्त्वाधिकार (२) को गाथा १ को देखिये
अस्यो खलु दश्चमी दष्पाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि ।
तेहिं पुणो पज्जाया पज्जयमुना हि परसमया ॥५३॥ टीका-इह किल यः कश्चन परिच्छिद्यमानः पदार्थः स सर्व एवं विस्तारसयतसामान्यसमुदायात्मना नयेणाभिनिवृत्तत्वाद् द्रव्यमयः । द्व्याणि तु पुनरेकाश्रयविस्तार-विशेषात्मकैरमिनिवृतस्त्राद् गुणात्मकानि । पर्यायास्तु पुनरायतविशेषात्मका उक्तलक्षणैव्यैपि गुणैरप्यभिनिवृत्तवाद दृष्यात्मका अपि गुणात्मका अपि । तनानेकद्रव्यात्मकैक्यप्रतिपत्तिनियन्धनो द्रव्यपर्यायः । स द्विविधः-समानजातीयोऽसमानजातीयश्च । तत्र समानजातीयो नाम यथा-अनेकपुद्गलात्मको द्वयणुकस्यणुक इत्यादि । असमानजातीयो नाम बथा. जीवपुद्गलास्मको देवो मनुष्य इत्यादि । गुणद्वारणायतानैक्यप्रतिपचिनिबन्धनो गुणपोयः। सोऽपि द्विविध:स्वभावपर्यायो विभावपर्यायश्च । तत्र स्वभावपर्यायो नाम समस्तदन्याणामात्मीयामायागुरुलघुगुणद्वारण प्रतिसमयसमुदीयमानषट्रस्थानपतितवृद्धिहानिनानास्वानुभूतिः । विभाचपर्याया नाम-रूपादीनां ज्ञानादीनां वा स्वपरप्रत्ययवर्तमानपूर्वोत्तरावस्थावतीर्णतादात्म्योपदर्शितस्वभावविशेषानेकरयापत्तिः ।
टीकाका अर्थ-लोक में जितना कुछ ज्ञेयरूप पदार्थ है वह सब बिस्तारसामान्य अर्थात् तिर्यकसामान्य और आयतसामान्य अर्थात् अव॑तासामान्य-इन दोनों के समूहरूप द्रव्य के रूप में अस्तित्वको प्राप्त हो रहा है, अतः द्रव्यरूप है | जितने द्रक्ष्य है वे सब गुणात्मक है, क्योंकि विस्तार गुणका नाम है और इस तरह प्रत्येक द्रव्य एक आश्रय में रहनेवाले विस्तारविशेषों अर्थात् गुणभेदोंके आधार पर अस्तित्वको प्राप्त हो रहा है। इसी प्रकार आयत पर्यायका नाम है और वे पर्याय उक्तलक्षण वाले द्वन्धों तया गुणांके आधारपर हो अस्तित्वको प्राप्त हो रही है, इसलिए पर्याय द्रश्यात्मक भी है और गुणात्मक भी हैं। इन दोनों प्रकारको पर्यायों में से जो पर्याय अनेक द्रव्योसे बने हुए ऐक्यवा ज्ञान करानेका कारण है वह द्रव्यपर्याय है। द्रव्यपर्याय दो प्रकारको है-एक तो समानजातीय द्रव्यपर्याय और दूसरी असमानजातीय द्रव्यपर्याप । इनमें से समानजातीय द्रश्नपयि तो दयणुक आदि पुद्गलात्मक है और असमान मातीय द्रश्यपर्यायें जोव तथा पुद्गलके मिश्रणमे निष्पन्न होनेवाली देव, मनुष्यादि पर्याय है। गुणोंके द्वारा आयत अर्थात् ऊर्ध्वरूपमें अनक्यको प्रतिपतिको कारणभूत गणपर्यायें हैं। ये गुणपर्यायें भी दो प्रकारको है-स्वभावपर्याय और विभावपर्याय । रामस्त द्रव्य अगुरुलधुगुणांके द्वारा प्रत्येक समयमें होनेवाली षड्गुणहानि-वृद्धिरूप स्वभावपर्यायें हैं और विभावपर्यायें रूपा