Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका ९ और उसका समाधान
५९७ यह लिखना कि कि 'श्लोकवातिक पृ० ४१० का कथम प्रेरक निमित कारणके विषय में नहीं है, किन्तु धर्मादि द्रव्योंके विषयों है जो अप्रेरक है ।' युक्तियुक्त नहीं है।
अपर पक्षका कहना है कि निमित्त नैमित्तिकसम्बन्ध निश्चयनयका विषय नहीं है । पर इससे क्या ? देखना यह है कि यह सम्बन्ध परित है या नहीं। हम इसी उत्तरमें पहले बसद्भुत व्यवहारका आगमसे स्पष्टीकरण कर आये है। उसमें भेदमें अभेदका उपचार करना इसे असदुद्भूत व्यवहार बतलाया गया है। इससे यह सम्बन्ध उपचरित ही सिद्ध होता है।
अपर पक्षने अपने पक्षके समर्थन में आलापपद्धतिके 'मिसवस्तुविषयो' इस प्लक्षका सहारा लिया है। किन्तु वहाँ एक वस्तु में भेद व्यवहारको भिन्न वस्तु कहा गया है । अपर पक्ष भेदोंके जो उदाहरण दिये है उन पर दृष्टिपात करले, सब स्पष्ट हो जायगा। वैसे यह लक्षण भो पद्धति में किये गये असदर्भत व्यवहारनयके 'अन्यत्र प्रसिद्धस्य' इत्यादि लक्षणका पुरक ही है। समयसार गाथा १६ की आत्मख्याति टीका व्यवहारनयका 'इह हि व्यवहारनयः"...."परभा परस्य विदधाति' यह लक्षण किया है। इससे हमारे उक्त कथनको पुष्टि हो जाती है । अतएव उक्त लक्षणके आधारसे भी निमितनैमित्तिकसम्बन्ध उपचरित लो सित होता है। इस प्रश्नके प्रथम उत्तरमें हमने इसी आशयसे इसका निरूपण किया है।
तत्त्वार्थरलोकवातिक प० १५१ में द्विष्ठ कार्य-कारणभावको व्यवहारनयसे परमार्थमत् लिखा है। इसलिए अपर पक्ष इस उल्लेखको बहुत महत्व देता है। अनेक प्रपत्रों में उस पक्षने इसकी अनेकवार बरचा की है। अब विचार यह करना है कि वहाँ विद्यानन्दि आम ऐसा दो नि!
कि बीउदय रूप, वंदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार आदिको संवृतिसत मानता है। क्योंकि यह दर्शन पर्यायोंमें अन्वित होनेवाले ट्रम्पको नहीं स्वीकार करता। तस्वको मात्र क्षणिक मानता है। किन्तु जैनदर्शनको यह स्थिति नहीं है । अतएव उपादान और उपादेयके कालभेदकी अपेक्षा भिन्न होने पर भी एक प्रत्यासत्तिके कारण इनमें कथंचित् तादाम्प बन जानसे आचार्य विद्यानन्दिने सद्भुत व्यवहारनपको हमानमें रखकर द्विष्ठ (दोमें स्थित) कार्य-कारणभावकी वस्तुत: परमार्थसत कहा है, क्योंकि उपादान अपने स्वरूपसे स्वत:सिद्ध है और उपादेय अपने स्वरूपसे स्वतःसिद्ध है। इनमें उपादान और उपादेवरूप धर्म वास्तविक है। इस मुम्बन्ध में आचार्य विद्यानन्दिके ये शब्द लक्ष्य में लेने योग्य हैं। वहीं पु०१५० में लिखते हैं
कार्यकारणभावस्य हि सम्बन्धस्याबाधितप्तथाविधप्रत्ययारूपस्य स्व सम्बन्धिनो वृतिः कवितादास्यमेवानेकान्तवादिनोच्यते ।
अबाधित तथाविध प्रत्यवारूद कार्य-कारणभावरूप (उपादान-उपादेय-भावरूप) सम्बन्धको अपने सम्बधियों में वृत्ति कथञ्चित तादात्म्यरूप ही अनेकान्तवादियों ने स्वीकार की है।
यह आचार्य विद्यानन्दिका मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। 'दवं व्यवहारनयसमाश्रयणे इत्यादि वचन लिख कर उन्होंने मुरूपतासे हसी कार्य-कारणभावको अर्थात उपादान-उपादेयभावको परमार्थसत कहा है। इसके लिए तत्त्वार्थश्लोकवातिक पु.१५० अवलोकनीय है । बाह्म सामनो और कार्यमें कार्य-कारणभाव (निमित्त नमित्तिकभाव) केवल कालप्रत्यासत्तिको ध्यान में रखकर स्वीकार किया गया है. क्योंकि कालप्रत्यासत्तिरूपसे जैसे बाह्य सामग्रीकी सत्ता है उसी प्रकार कार्यव्यकी भी सत्ता है। इस रूपसे ये दोनों परमार्थसत् है 1 इससे द्रिष्ठ कार्य-कारणभावको परमार्थसत् कालप्रस्यासत्तिवश कहा है यह भी ज्ञात हो जाता है और इनमें निमित्त नैमित्तिकव्यवहार असद्भूतथ्यवहारनयका विषय कैसे है यह भी शात हो जाता है।
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