Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर (बानिया ) तस्वचर्चा रहा हो तयापि स्वभावको न छोड़ता हुआ संख्याको प्राप्त होने पे ( अर्थात् परिपूर्णके समान पृथक् गिनतो में आनेसे ) अकेला ही द्रव्य है। __ भ्यवहार और निश्चयसे इसी विषयको स्पष्ट करते हुए नियममारमें भी कहा है
पोग्गल उच्चइ परमाणू णिच्छपुण इदरेण ।
पोग्गलदग्बो शिपुणो ववदेसो होदि खंधस्स ॥२९॥ अर्थ-निश्चयसे परमाणको पुदगल द्रव्य कहा जाता है और व्यवहारसे स्कन्धको पुदगल द्रव्य ऐसा नाम होता है ॥२६॥
गुद्गलदम्यव्याख्यानोपसंहारोऽयम्--स्वभावशुद्धपर्यायात्मकस्य परमाणोरेच पुद्गलब्धव्यपदेशः शुद्धनिश्चयेन । इतरण व्यवहारनयन विमावपर्यायात्मना स्कन्धपुद्गलानां पुदगलत्वमुपचारत सिद्ध भवति ।
__ यह पुद्गल द्रव्य के कनेका संहार -द्ध निश्चगमगमे स्थभावशुद्ध पर्यायात्मक परमाणुको ही पुद्गलद्रव्य ऐसा नाम होता है । इतर अर्थात् व्यवहारनयसे विभावपर्यायात्मक स्कन्धपुद्गलॊको पुद्गलपना उपचारसे सिद्ध होता है।
इसी विषयको बहुत ही स्पष्ट शब्दों में स्वीकार करते हुए प्रवचनसार गाथा १६१ को टौकाम लिखा है-- अनेकपरमाणुगम्यस्वलक्षणभतस्वरूपास्तिस्वानामनेकस्वेऽपि कथञ्चिदेकरखेनावभासनात् ।
क्योंकि अनेक परमाणु द्रब्योंके स्व लक्षणभूस स्वरूपास्तित्व (स्वद्रव्यचतुष्टय) अनेक होने पर भी कथं. चित (स्निग्धत्व-रुक्षत्वकृत बन्धपरिणामकी अपेक्षासे) एकत्वरूप अवभासित होते है।
इसप्रकार जब कि दो सजातीय द्रव्यों के बन्धको ही व्यवहारसे बन्ध लिखा है तो जोत्र पुद्गल दो विजातीय द्रव्योंके बन्धको भी व्यवहारस्वरूप कैसे नहीं कहा जायगा ।
इस प्रकार व्यवहारनयसे ही पदगल और पुद्गलका तथा जीव और पदगलका बन्ध आगममें कहा गया है। इससे यह फलित हुआ कि जिस ट्रष्यके जिस कालमें जैसी अवस्था होती है केवली भगवान उसे ठीक उसी प्रकारसे जानते है, और जिस प्रकारसे वे जानते हैं वही आगममें प्रतिपादित है।
द्वितीय दौर
शंका १० प्रश्न यह है-जीव तथा पुद्गलका एवं द्वयणुक आदि स्कन्धोंका बन्ध वास्तविक है या अवास्तविक ? यदि अवास्तविक है तो केवली भगवान उसे जानते हैं या नहीं ?
प्रतिशंका २ आपने अपने उत्तर में जीव तथा पुदगलका एवं घणुकादि स्कन्धोंका बन्ध स्वीकार करते हुए प्रवचनसार गाथा १७७ की टोकाका उद्धरण देते हुए बतलाया है कि 'जीव तथा कर्म पगलके परस्पर