Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका ९ और उसका समाधान णमे और कोई आग्रु कर्मरूप परिणमे, ऐसा क्यों ? इत्यादि अनेक प्रश्न हैं जो यहाँ समाधान चाहते हैं । अपर पक्षने मात्र उक्त उद्धरण तो उपस्थित कर दिया पर उसका आशय क्या है यह स्पष्ट नहीं किया। इसलिए अपर पक्ष यदि इस उद्धरण परसे यह तात्पर्य फलित करना चाहे कि कहीं कार्यमें आभ्यन्तर सामग्रोकी प्रधानता रहती है और कहीं बाह्य सामग्रीकी प्रधानता रहती है तो ऐसी मान्यताके बनाने में उसे किसी भी उल्लेखसे सफलता नहीं मिल सकती।
विचार कर देखा जाय तो यहाँ पर आचार्य सहकारी सामग्रीसे शक्तिभेदको लिए हुए ज्ञानावरण और आयुकर्मकी अपने-अपने स्थितिबन्धके योग्य सामग्नीको ही ग्रहण कर रहे हैं, क्योंकि जितने भी कार्य होते है वं अन्तरंग-बहिरंग सामग्रोस प्रतिबद्ध होकर ही होते हैं। (धवला पु०१२ पृ. ३७)। घयला पु०६ पृ० १४८ में आचार्य वीरसेन लिखते हैं कि जिस समयप्रबद्ध में सीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम स्थितिवाले परमाणु पुद्गल होते हैं उन में एक समय, दो समय, तीन समय आदिसे लेकर तीन हजार वर्षप्रमाण काल. स्थितिवारे पुद्गल स्वभावसे नहीं होले । इससे स्पष्ट है कि प्रतिनियत बाह्य सामग्रीके साथ प्रतिनियत माभ्यन्तर सामनांक हानका प्रतिनिधभह और उसी प्रतिनियमका धवला पु०१२ पृ० ४५३ में उक्त शब्दों द्वारा उल्लेख किया गया है। इसी प्रकार पु०३८० ११२० के अपर पक्ष द्वारा उल्लिखित उल्लेखों के विषयमें भी स्पष्टीकरण समझ लेना चाहिए । सहकारी कारण कार्यको अन्तरंग सामग्री के लिए भी कहा जाता है। इसके लिए तत्त्वार्थश्लोकवातिक पृ० ६५ के 'दण्डकपाटप्रतरलोकपूरण-' आदि बनन पर तथा सर्वार्थसिद्धि अ०१ सू०७ पर दृष्टिपाल कीजिए । बाह्य और आभ्यन्तर दोनों सहकारी सामग्री या सहकारी साधन कहलाते हैं। जहाँ सामान्य निर्देश हो वहाँ प्रकरणको देखकर उसका अर्थ करना चाहिए।
अपर पलने लिखा है कि 'जो मात्र यात्मपरिणामसे मोक्ष मानते है उनके लिए यह विचारणीय हो जाता है कि द्रव्यकमको शक्ति भी अपेक्षित है, मात्र कषाय परिणामोंसे हो कर्मों का पात सम्भव नहीं है।' समाधान यह से कि कर्मों का घात स्वयं उनके अपने परिणामका फल है, जपाय परिणाम तो उसमें निमित्तमात्र है। उसी प्रकार आत्माका मोक्ष स्वयं आस्माका कार्य है, द्रव्य कमों की निर्जरा तो उसमें निमित्त मात्र है। ऐसो ही निश्चय-व्यवहार की व्यवस्था है। एक दूसरेता कार्य नहीं करता। किन्तु जमकी प्रमिद्धिका हेतु होने. से वह व्यवहारहतु कहलाता है। अपने कार्यका निश्चय हेतु वह दून्य स्वयं होता है। यदि अपर पक्षने उक्त वचन द्वारा इसी तय्यको सूचित किया है तो उसे रार्यत्र कार्य-कारणपरम्परामें इस नियमको स्वीकार करने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए। ऐसी अवस्था में उस पक्षको समर्थ उपादान किसे कहते है और बाह्य सामग्री में निमित्त व्यवहार क्यों किया जाता है इसे हृदयंगम करने में कठिनाई नहीं जायगी ।
पवला पु०१ पृ० ३६६-३६७ में मनःपयंयज्ञानकी उत्पसिके बाह्म हेतुओं का निर्देश किया गया है, आभ्यन्तर हेतुका नहीं। प्राभ्यन्तर हेतु समर्थ उपादान है। उससे युक्त संयमपरिणाम और द्रव्य-क्षेत्र. कालादि मनापर्यययज्ञानको उत्पत्तिके बाह्य हेतु है यह उक्त कथन का तात्पर्य है। अवधिज्ञानको उत्पसिके सम्बन्ध में ऐसा ही एक प्रश्न धवला पु०१३ पृ. २६ में उठाकर उसका दुसरे प्रकारसे समाधान किया गया है। उस्लेख इस प्रकार है
जदि सम्मत-अणुब्बद-महन्चदेहितो ओहिणाणमुपस्तदिती सञ्चसु असंजदसम्माइहि-संजदासंजदसंजदेस ओहिणार्ण किया उवलभदे? एस दोसो ? असंखेज्जलोगमेशसम्मत-संजम-संजमासजमपरि