Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर ( खानिया) तत्त्वचर्चा ___ यहा 'येन प्रकारेण' तथा 'तेन प्रकारेण' पद ध्यान देने योग्य हैं। इन पदों द्वारा अपने भाव करने में जीवकी स्वतन्त्रता घोषित की गई है। इसके साथ जीवकी इतनी विशेषता और है कि परको निमित्त कर उत्पन्न हुए इन भावों में यह जीव उपयुक्त हो या न हो यह उसकी अपनी दूसरी विशेषता है । यह मोक्षमार्गकी चाबी है । मोक्षके द्वारका उद्घाटन इसी चावीसे होता है । अन्य जितना कथन है वह सब व्यवहारवचन है। आचार्य अमृतचन्द्र समः सा० गा० १७२ की . टोकामें लिखत है
जो वास्तव में ज्ञानी है उसके बुद्धिपूर्वक राग-द्वेष-मोहरूपी आस्रव भावों का अभाव है । इसलिए वह निरालव ही है। परन्तु इतनी विशेषता है कि वह ज्ञानी भी जब तक ज्ञान (आत्मा } को सर्वोत्कृषभाषसे देखने, जानने, अनुचरण करनेके लिए अशक होता हुआ जघन्यभावसे ही ज्ञान (आत्मा) को देखता, जानता और अनुचरता है तब तक उसके मी जघन्यभात्रको अन्यथा उत्पशि नहीं हो सकती, इससे अनुमीयमान अत्रुद्धिपूर्वक कमलक विपाकका सद्भाव होनेसे पुद्गल कर्मका बंध होता है। अतः तब तक आत्मा ( ज्ञान ) को देखना गहिए, जानना चाहिए और अनुचरण्या चाहिए जब तक ज्ञान (आत्मा) का पूर्ण भाष है उतना मले प्रकार देखने जानने और अनुचरणमें भाजाय तबसे लेकर साक्षात् ज्ञानी होता हुआ वह आत्मा निरास्वव ही रहता है।
अपर पक्षकी इसी दृष्टिको ध्यान में लेना है। इसे ध्यानमें बनेपर उम पक्षका कोन कथन भागमानुकूल है और नहीं है तो क्यों नहीं है यह भी उसके व्यान में आ जायगा।
अपर पक्ष यदि यह नहीं मानता है कि 'जो निमित्त बलात् कार्यके स्वकालको छोड़कर आगे-पीछे पर द्रव्य उत्पन्न करता हो वह प्रेरक निमित्त है तो हम उसका स्वागत करते हैं। ऐसी अवस्था उसे पंचाध्यायी ५०६५ का उद्धरण देनको कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। वहाँ स्वद्रव्य, सक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावके निर्देशके प्रसंगसे स्वकाल दाब्द पर्यायके अर्थ में आया है। यही विचार यह करना है कि पर्याय तो अनन्त हैं और उनका लक्षण क्रमभावीपना है, इसलिए उनका उत्पाद-पय क्रमानुपाती होला है या नहीं? इसीके समाधानस्वरूप उपादानके आधार पर यह स्पष्ट किया जाता है कि जितनी उत्पादरूप पर्याये हैं उनके उतने ही समर्थ उपादान है, इसलिए उनका उत्पाद क्रमानुपाती ही होता है
और उनके व्यवहार हेतु भी क्रमानुपाती क्रमसे उसी विधिसे मिलते रहते हैं। निश्वयव्यवहारकी ऐसी ही युति है। इसी अवस्थामें सम्यक अनेकान्त घन सकता है, अन्यथा नहीं । अन्यत्रहित पूर्व समयवों पर्याययुक्त द्रव्य समर्थ उपादान है और अव्यवहित उत्तर समयवर्ती पर्याययुक्त द्रव्य उसका उपादेय है यह क्रम है। इसी क्रमसे सब कार्य होते हैं। निमित्त व्यवहार के योग्य अन्यका संयोग भी इसी क्रमसे मिलता है। इस क्रमको कोई महाशय अन्यथा नहीं कर सकता।
अभी अपर पक्ष उपारा काध्ययन का 'प्रेयते कर्म जीवेन' इत्यादि बचन उद्धृत कर आया है । हम तो कर्मशास्त्र के विशेषज्ञ नहीं है। उसके विशेषज्ञ हमें अपर पक्षको मानने में आपत्ति भी नहीं है। अतएव हम यदि यह जानना चाहे कि अपर पक्षने जो अपने पक्षके समर्थन में उक्त उल्लेख सपस्थित किया है वह सार्बकालिक नियमको ध्यान में रखकर उपस्थित किया है या इसे कायाचिरक नियमके रूप में उपस्थित किया है। यदि सार्वकालिक निमम समझकर उपस्थित किया है तो अपर पक्षने कर्मशास्त्रको विशेषताको प्रकाशमें लाने के