Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका ५ और उसका समाधान
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हट जाने से आत्मा के राग-द्वेष आदि नैमित्तिक विकारभाव दूर हो जाते है। उस दशा में बास्माकी परतन्त्रता भो दूर हो जाती हैं।
तदनुसार आपने जो बन्ध और मुक्ति के विषय में लिखा है कि'वह (संसारी आत्मा ) अज्ञानरूप अपने अशुद्धभावांसे बद्ध है। उसे (संसारी जीवको) यदि बद्धताका अभाव करना है तो अपनी उसी बद्धताका ( अज्ञान आदिका) अभाव करना है । उसका अभाव होनेसे जो असद्भूत व्यवहाररूप बद्धता कही गयी है उसका अभाव स्वयमेव नियमसे हो जाता है।'
आपका यह बद्धता के अभावका क्रम विचारणीय है, क्योंकि समयसार में -
सम्मत पडिणिवद्धं मिष्टत्तं जिणबरेहिं परिकहियं । तस्सोक्ष्येण जीवो मिच्छादिद्धि त्तिणायच्वो ॥ १६१ ।। णाणस्स पक्षिणि अण्णाणं जिणवरेहिं परिकहियं । तस्सोदयेण जीवो अण्णाणी होदि सि पायरुषो ॥ १६२ ॥ चारितपडिणिषद्धं कषायं जिणवरेहि परिकहियं । सरसोदयेण जीवो अचरितो होदि गायत्री ॥ १६३ ॥
इन तीन गाथाओं द्वारा सम्यक्त्वका, ज्ञानका और चारित्रका प्रतिबन्धक कारण क्रमसे मिध्यात्व मोहनीय, ज्ञानावरण और पारित्रमोहनीय द्रव्यकर्म बतलाया है। उन प्रतिबन्धक निमित्तकारणोंरून द्रव्यकमक प्रभावसे आत्मा मिध्यादृष्टि, अज्ञानी और असंयमी होता है ।
इसके अनुसार यह बात सिद्ध होती है कि मिथ्यात्व अज्ञान, असंगमरूप जीवके विकृतभाव दर्शनमोहनीय आदि द्रव्यकर्मरूप प्रतिबन्धक कारणोंके द्वारा होते हैं ।
अतः कार्य-कारणभाव के नियमानुसार जब प्रतिबन्धक निमित्त कारण दूर होते है तब हो आत्माके सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र गुण प्रकट होते हैं । जैसे कि रात्रि या काली आँधी, प्रबल घनपटल आदि प्रतिबन्धक कारणों के दूर हट जाने पर ही सूर्यका प्रकाश होता है । बासामये लगातार १५-१५ दिन तक वर्षा होते रहने १५-१५ दिन तक सूर्य बादलोंसे बाहर दिखाई नहीं देता ।
इस कारण आपका यह लिखना कि पहले अज्ञानादिका नाश होता है तदनंतर ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्माका नाश अपने आप हो जाता है विचारणीय है। श्री कुन्दकुन्दाचार्यने पञ्चास्तिकाय में इसके विरुद्ध लिखा हैकम्मस्साभावेण य सम्वण्डू सव्वको गदरसी य । पावदि इंदियर हिदं अम्बावाहं सुहमतं ॥ १५१ ॥
गाथार्थ - द्रव्यकर्मो के अभाव से आत्मा सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हो जाता है तथा इन्द्रियातीत भन्याबाष अनन्त सुख प्राप्त करता है ।
इस गाथाकी टीका करते हुए श्री अमृतचन्द्रसूरि लिखते हैं-
ततः कर्माभावे स हि भगवान् सर्वन्नः सर्वदशाँ स्युपरतेन्द्रियव्यापारोऽन्यावाश्रानन्तसुखश्च नित्यमेवावतिष्ठते ।
टीकार्थ — इसलिये द्रव्यकमका अभाव हो जाने पर वह आत्मा सर्वश. सर्वदर्शी अतीन्द्रिय अध्यबाध अमन्स सुखी सदा रहता है ।
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