Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचचों अर्थ---आस्त्रव की अशुचिता ( अपवित्रता), विपरीतता तथा दुखकारणता जानकर भब्य जीय उनको निवृत्ति ( निवारण ) करता है ।
इसको टोकामें श्री अमृतचन्द्र सूरि लिखते है
किं च यदिदमास्मासवयोभवज्ञानं किं वाऽज्ञान ? यद्यज्ञानं तदा तदभेदज्ञानान्न तस्य विशेषः । शानं चेत् किमारवेषु प्रवृत्त, किमात्रवेषु निवृत आत्रवेषु प्रवृत्त चेत्तदपि तदभेदज्ञानान्न तस्य विशेषः । भानवेभ्यो निवृस चेत्तहि कथं न ज्ञानादेव बन्धनिरोधः । इति निरस्तोऽज्ञानांशः क्रियानमः । यत्वात्मासवयोमेंदज्ञानमपि नारयेभ्यो निवृतं भवति सज्ज्ञानमेव न भवतीति ज्ञानाशी ज्ञाननयोपि निरस्तः ।
अर्थ-यदि आत्मा और कर्म मानवमें मैदशान है तो वह ज्ञानरूप है या अज्ञानरूप ? यदि अज्ञानरूप है तो वह आत्मा और आम्रपके अभेदज्ञानसे कुछ विशेष नहीं ठहरता। यदि वह ज्ञानरूप है तो क्या वह भेदज्ञान भास्त्रवों ( आसबके कारणों में प्रवृत्त है या निवस है? यदि आसवों में प्रवृत्त है (आस्रवके कारणभूत विषय भोगोंमें लगा हुआ है) तो वह भेदशानरूप नहीं, अभेदज्ञानसे उसमें कुछ विशेषता नहीं ( अर्थात् व्यर्ध है।) यदि यह ज्ञान आत्रवों से निवृत्त है तो उस ज्ञानसे ही कर्मबन्धका विरोध हो जायगा । (कर्म आसवके कारणभूत विषयभोगों-असंयमसे निवृत्त होकर संयम सहित जानसे कर्मबन्ध रुक जायगा । जो भेधविशान आलयोंसे ( कर्म मालवोंके कारणोंसे) निवृत्त नहीं होता वह भेदज्ञान ही नहीं है ।
इसका आशय यही है कि शानकी सफलता केवल तत्त्व जानने में ही नहीं है, अपितु आलवके कारणभूत पापक्रिया तथा विषयभोगों आदिसे निवृत्त होकर व्यवहारधर्म आचरण करनेसे है।
संवर और कर्मनिर्जरा किस तरह भेदविज्ञानका उद्देश आत्माको कर्म-आस्रव तथा कर्मबन्ध से छुड़ाकर कर्मोका संवर और कर्मनिर्जरा करनेका है जिससे क्रमशः आत्मशुद्धि होते हुए मोक्ष प्राप्त हो सके । अतः सत्वज्ञान के साथ व्यवहारचारित्र भी जब आचरणमें आता है तब ही कर्मसंवर और कर्मनिर्जरा हुआ करती है। अकेला जान मुक्तिका या संघर निर्जराका कारण त्रिकालमें भी नहीं है। श्री कुन्दकुन्द आचार्यने प्रवचनसार गाथा ७ में कहा हैचारित्त खलु धम्मो' 'अर्थात् चारित्र वास्तवमै धर्म है । सथा च मोक्षपाहड़ गाथा १७ में कहा है
___णाणं चरित्तहीणं दसणहीणं तवेहिं संजुत्तं ।
अण्णेसु भावरहियं लिंगरगहणेण किं सोक्खं ॥ अर्थ-जहाँ ज्ञान सो चारित-रहित है, आप दर्शन ( सम्यक्त्व ) रहित है, आवश्यक आदि क्रिमा रहित लिंग जो भेष है उसमें सुख कहाँ है।
संस्कृत भाषामें आद्य सैद्धान्तिक सूत्रकार श्री उमास्थामो आचार्य तत्त्वार्थसूत्र में कहते हैंस गुप्तिसमिसिधर्मानुप्रेक्षापरीपहजय चारित्रैः ॥ १-२ ॥
अर्थ--यह कर्मसंवर गुप्ति समिति, समादि धर्म, अनित्यादि भावना, परीषबजय और सामायिक आदि चारित्रसे होता है।
तपसा निजरा च ॥ १.३।। अर्थ-अन्तरंग बहिरंग तपसे कर्मोकी निर्जरा ( अविवाक निर्जरा ) होती है। इन दोनों सूत्रोंसे भी प्रमाणित होता है कि व्यवहारचारित्र कर्मसंबर और कर्मनिर्जराका कारण है।