Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका ९ और उसका समाधान
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१. 'आगम में सर्वत्र यह तो बतलाया है कि यदि संसारी आत्मा अपने बद्ध पर्यायरूप राग, द्वेष और मोह आदि अज्ञान भावोंका अभाव करनेके लिए अन्तरंग पुरुषार्थ नहीं करता है और केवल जिसे आगममें उपचारसे व्यवहारवमं कहा है उसमें प्रयत्नशील रहता है तो उसके द्रव्यकमको निर्जरा न होने के समान है ।'
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२. 'अतएव संसारी आत्माको द्रव्य भावरूप उभय बन्धनोंसे छूटने का उपाय करते समय निश्वयव्यवहार उभयरूप धर्मका आश्रय लेने की आवश्यकता है । उसमें भी नियम है कि जब यह आत्मा अपने परम निश्चल परमात्मरूप ज्ञायकमात्रका आश्रय लेकर राम्यक् पुरुषार्थ करता है तब उसके अन्तरंग निश्वय रत्नत्रयस्वरूप जितनी जितनी त्रिशुद्धि प्रगट होती जाती है उसीके अनुपात में उसके बाह्य में द्रव्यकर्मका अभाव होता हुआ व्यवहारधर्मकी भी प्राप्ति होती जाती है।'
यह मूल प्रश्न हमारे प्रथम उत्तरका वाक्यांश हूँ। इसमें व्यवहारधर्मका विषेध नहीं किया गया हैं। फिर भी अपर पक्षको इस उत्तरसे सन्तोष नहीं है। अपर पक्षका कहना है कि 'इसका उत्तर भी बहुत सरल था सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्र छुटनेका उपाय है। किन्तु इतने सामान्य उत्तरसे मूल समस्याका समाधान होना सरल न होने ही हमें थोड़ा विस्तारसे खुलासा करना आवश्यक प्रतीत हुआ । बाह्य क्रिया आत्माकाहीं है ऐसा ज्ञान करने से हानि नहीं होती। किन्तु स्वभाव सम्मुख हो आत्मपुरुषार्थ प्रगट होता है। अपर पक्ष के सामने इसकी उपयोगिता सष्ट करनी हैं और इम उक्त निरूपण प्रथम उत्तर में किया गया है ।
अपर पक्ष समझता है कि हमने अपने प्रथम उत्तरमें व्यवहारधर्मका सर्वथा निषेध किया है। किन्तु वस्तुस्थिति यह नहीं है | हमारे किस वाक्यले उस पक्षने यह आशय लिया इसका उसको ओरसे कोई स्पष्टी करण भी नहीं किया गया है। साधक के सविकल्प दशा में प्रवृत्तिरूप व्यवहार धर्म होता है इसका भला कौन समझदार निषेध करेगा। हाँ यदि व्यवहार करते-करते उससे निश्चय की प्राप्ति हो जाती है ऐसी जिसको मान्यता है। साथ हो जो व्यवहारधर्मको निश्चयमंकी प्राप्तिका यथार्थ सायन मानता है उसका निषेध किया जाता है और इसे ही अपर पक्ष व्यवहारधर्म का निषेध समझता है तो समझे । मात्र उस पक्ष की समझ हमारा कथन सदोष हो जायगा ऐसा नहीं है ।
उदाहरणार्थ एक २८ मूलगुणों का पालन करनेवाला मिष्यादृष्टि है और दूसरा मिध्यादृष्टि नारकी या देव है । ये दोनों यदि सम्यग्दृष्टि बनते हैं तो स्वभावसन्मुख होकर तीन करण परिणाम करके ही तो बनेंगे। इनके सम्यग्दृष्टि बनेका अन्य मार्ग नहीं है। अपर पक्ष से यदि पूछा जाय तो वह पक्ष भी यही उत्तर देगा | स्पष्ट है कि न तो व्यवहारधर्म करते-करते निश्वयधमंकी प्राप्ति होती हैं और न ही व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मका यथार्थ साधन माना जा सकता है। अपर पक्षको यदि स्वीकार करना है तो इसी तथ्यको स्वीकार करना है। इसे स्वीकार करने पर उस पक्ष की यह समझ कि 'हम व्यवहारधर्मका सर्वश्रा विषेष कर रहे हैं' सुतरां दूर हो जायगी ।
हमने इस प्रश्न उत्तर में निश्चयधर्मके साथ व्यवहारधर्मकी भो चरचा की है। इसे अपर पक्ष अत्रासंगिक समझता है । किन्तु ऐसी बात नहीं है, क्योंकि जब संसारी जीवके संसारसे छूटनेके उपायका निर्देश किया जायगा तब निश्वयभ्रमंके साथ व्यवहारधर्मका निरूपण करना अनिवार्य हो जाता है। यदि पर पक्ष प्रश्नोंको सीमामें रहा आता तो लाभ ही होता । किन्तु उसको ओरसे सोमाका ध्यान ही नहीं