Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका ९ और उसका समाधान
प्राप्ति हो जाती है या सरो निश्चयधर्मकी प्राप्ति हो जाती है। जब भी उस (निदषयधर्म) को प्राप्ति होती है तब अशुभके समान शुभ विकल्पसे निवृत्त होकर स्वभावसन्मुख हो तस्वरूप परिणमन द्वारा ही होती है । परावलम्बो विकल्प तो इसकी प्राप्तिमें किसी भी अवस्थामें साधक नहीं हो सकता। फिर भी स्वभावसन्मुख होने के पूर्व अशुभ विकल्प न होकर नियमसे भ विकल्प होता ही है, इसलिए ही व्यवहार. नयसे व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मका राषक कहा है। इससे यह ज्ञान होता है कि जो निरचयघर्गको प्राप्तिके सन्मखासको सिमाहरलापाण और स्वर्णमें जो साधक-साध्यभावका निर्देश किया है उसका भी यही आशय है।
हमने जो यह वचन लिखा है कि निश्चय रलत्रयस्वरूप जितनी विशुद्धि प्रगट होती जाती है उसके पातमें उसके बादमें द्रश्यकमका अभाव होता हआ व्यवहार धर्म को भी प्राप्ति होती जाती है। वह दोनोंका अविनाभाव सम्बन्ध कसा है यह दिखलानेके लिए हो लिखा है। पहले कोई नहीं होता । साथ-साथ होते हैं यह लिखक र व्यवहार में सम्यक्पनेको हेतुताका निर्देश किया गया है। जो व्यवहार पहले मिथ्या था यह निश्चय रत्नत्रयको प्राप्ति होनेर मम्यक् व्यवहार पदवीको प्राप्त हो जाता है यह उन कथनका तात्पर्य है। जैसे जो ज्ञान पहले मिथ्या था वह सम्यवत्त्वकी प्राप्ति होने पर सम्यक हो जाता है उसी प्रकार ब्रतादिके आवरणला जो व्यवहार पहले मिथ्या था वह निश्चय रत्नत्रयकी प्राप्ति होनेगर सम्यक हो जाता है। इसको चाहे किन्हीं शब्दाम कहिए, हानि नहीं । इस कार्य-कारणपरम्परामें किसी प्रकारका व्यत्यय उपस्थित नहीं होता । अन्यथा आचार्य अमृतचन्द्र समयसार गाथा ७४ को टोकामें यह कभी न लिखते--
___ यथा यथा विज्ञानघनस्वभावो भवति तथा तथास्रनेभ्यो निवर्तते । जैसे जैसे विज्ञान पनस्वभाव होता है वैसे वैसे आसूत्रोंसे निवृत्त होता है।
अपर पक्ष हमारे कथनको विलोमरूपसे समझता है तो समझे । किन्तु क्या वह पक्ष इस कथनको मी विलोमरूप कहनेका अभिप्राय रख सकता है ? कभी नहीं । आक्षेप करना अन्य बात है पर पूरे जिनागम पर दृष्टि रखना अन्य बात है।
अपर पक्षका कहना है कि 'अन्तरंग विशुद्धता कर्मोदयके अभावका ज्ञापक तो है किन्न कारण नहीं है।' यह पढ़कर हम बड़ा आश्चर्य हुआ। यदि अपर पक्ष तत्वायरलोकवातिक प० ६५ के इरा वचन पर या इसी प्रकारके अन्य आगमवचनों पर दृष्टिमात कर लेता तो आग्रहपूर्ण ऐसा एकान्त वचन कमी न लिखता। तत्त्वावलोकबातिकका वह वचन इस प्रकार है
तेनायागिजिनस्यान्यक्षावर्ति प्रकीर्तितम् ।
रत्नत्रयमशेषाप्रविघातकारणं ध्रुवम् ।४।। इसलिए अयोगिजिनका अन्त्य क्षणवर्ती रत्नत्रय नियममें समस्त अघाँका विधात करनेवाला कहा गया है।
यहाँ पर 'अघ' पद नामादि अवातिकर्म और उनको निमित्त कर हुए भावोंका सूचक है ।
कर्म हीनशक्ति होकर व उदीरित होकर झड़ जायें इसीका नाम तो अविपाकनिर्जरा है और इसका । जीवका विशव परिणाम है. इसलिए जैसे जैसे जीवका अन्तरंग विशद्ध परिणाम होता जाता है वैसे बैंसे कर्मोदयका अभाव होता जाता है इस सत्यको स्वीकार करने में अपर पक्षको आपत्ति नहीं होनो चाहिए ।