Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर (खानिया) तत्व चर्चा
रखा गया । लाचार होकर हमें प्रतिशंकाओंके आधार पर अपना उत्तर लिखने के लिये बाध्य होना पड़ा | उदाहरणार्थं अपने इसी सोय पत्रक में अपर पक्षने साध्य साधकभावको चरचा छेड़ दो है जब कि इसके लिए प्रश्न नं० ४ है । इतना ही नहीं, अपर पक्षने इस प्रसंग में जिन को रखा है उनकी भी यह विविध प्रनोंमें अनेक बार चरवा कर चुका है। ऐसी अवस्थामें हमें उनका उत्तर लिखना पड़ता है, इसका इलाज नहीं |
अपर पक्षने अपने पिछले पत्रक कर्मको राग-द्वेष आदिका प्रेरक निमित्त लिखा और राग-द्वेषको कर्मका प्रेरक निमित्त लिखा । यही कारण है कि हमें इसके सम्बन्ध में स्पष्टीकरण करना आवश्यक हो गया । कोई भी समाधान करनेवाला यदि प्रश्नकर्ताको प्रत्येक जातका विचार न करे तो उससे सम्यक् समाधान होना कभी भी सम्भव नहीं है। भोजन के समय यदि व्यापारकी वरचा की जाती है तो कभी-कभी उसका उत्तर देना भी अनिवार्य हो जाता है। प्रपर पक्ष हमसे शिकायत करनेकी अपेक्षा अपने पर दृष्टिपात करने की कृपा करे, सब बातोंका समाधान हो जायगा । संसारी प्राणी उलझन स्वयं उत्पन्न करता है और दोषी दूसरेको सरझता है, इस मिथ्या व्यवहारका निषेध जितने जल्दी हो जाय, लाभकर हो हैं ।
आचार्य कुन्दकुन्द मुनि और जयसेन अग्र्यानेि जहाँ भी धर्मको साधन और निश्वयधर्मको साप लिखा है वहाँ वह कथन समयसार गाथा ८ के विवेचन को ध्यान में रखकर ही किया है। व्यवहार धर्म निश्वय धर्मका साधन है इसका अर्थ यह नहीं है कि व्यवहारधर्म निश्चयधर्मको सरपन करता है । किन्तु उसका आशय इतना ही है कि व्यवहारधर्म निश्चयधर्मका व्यवहारसे हेतु है । जो हेतु होता है वह उसका साधन कहा जाता है और जो साधा जाता है वह साध्य कहा जाता है। इस प्रकार साधन - साध्यभाव व्यवहारधर्म- निश्चयधर्म में है इसका निषेध नहीं है। सम्यग्यदृष्टि ऐसे ही साधन-साध्याभावको दोनोंमें स्वीकार करता है, इसलिए वह सम्यग्दृष्टि है । किन्तु इससे अन्यथा माननेवाला मिध्यादृष्टि है यह बृहद्रव्यसंग्रह के कथनका आशय है । व्यवहारधर्मको कर्ता कहना और निश्चयधर्म को उसका कर्म कहना यह इन दोनों में निमित्तनैमित्तिक व्यवहारका ज्ञान करानेके लिए आगम में अद्भूत व्यवहारनयको लक्ष्यमें रखकर fear गया है। बृहद्यसंग्रह गाथा ३५ को टीकामें लिखा है
निश्वयेन विशुद्धज्ञानदर्शन स्वभाव निजात्मनश्व भावनोत्पासुखसुधारसस्वादवलेन समस्त शुभाशुभरागादिविकल्प निवृत्ति तम् । व्यवहारेण तत्साधकं हिंसानुतस्ते या मह्मपरिग्रहास्य यावजीवनिवृत्तिलक्षणं पंचविधं व्रतम् ।
निश्चयनयको अपेक्षा विशुद्ध ज्ञान दर्शनस्वभावरूप निज आत्मतत्वको भावनासे उत्पन्न सुखरूपी अमृतके स्वाद के बल से समस्त शुभाशुभ रागादि विकल्पोंसे निवृत्त होना अल है । तथा व्यवहारनयसे उसका साधक हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रहसे यावज्जीवन निवृत्तिलक्षण पोच प्रकारका व्रत है ।
यह बागमवचन है । इसमें निश्चय बतका साधक दर्शन-ज्ञानस्वभावरूप निज आत्मतत्त्वकी भावनाको बतलाया गया है। यह निश्चय है और व्यवहार नयसे इसका साधक अशुभनिवृत्तिरूप पाँच प्रतों को बतलाया गया है। यह व्यवहार कथन है। इससे स्पष्ट है कि आगम में जहाँ भी व्यवहारधर्मको निश्चयका साधक लिखा है वहाँ वह कथन असद्भूत व्यवहारनयकी अपेक्षा से ही किया गया है । यद्यपि निश्चयधर्मकी प्राप्ति होती तो है शुभाशुभ विकल्की निवृत्ति होनेपर ही । ऐसा नहीं है कि अशुभरूप हिंसादिरूप विकल्पसे निवृत्त होकर शुभरूप अहिंसादि विकल्प के सद्भाव निश्चय मंकी