Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका और उसका समाधान
असद्भुत व्यवहारका लक्षण है-एक व्यके गुणधर्मको अन्य द्रव्यका कहना ।
उदाहरण-असदभूत व्यवहारनयकी अपेक्षा ज्ञानावरणादि आठ द्रव्यकर्मों तथा औदारिक शरीरादि नोकर्म के साथ आत्मा बंधा है।
यद्यपि संसारी आत्मा वास्तवमें अपने राग-द्वेषादि मावोंसे बद्ध है। तथापि शानावरणादि कर्मों और शरीरादि नोकर्मको निमित्तकर उनकी उत्पत्ति होती है, इसलिए निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धको देखते हुए जोष इनसे बद्ध है ऐसा व्यवहार किया जाता है। यहाँ जो वका अपने गुण-पर्यायोंके साथ जो बद्धता धर्म उपलब्ध होता है उसका ज्ञानावरणादि कर्मों बादिमें आरोपकर आत्मा उनसे बद्ध है यह कहा गया है।
प्रश्न ८ के प्रथम उत्तरमें भी इसी दृष्टिको ध्यानमें रखकर ही 'दो या दो से अधिक द्रव्यों और उनकी पर्यायोंमें जो सम्बन्ध होता है बह असद्भुत ही होला है।' यह वचन लिखा गया है । दोन एक है । भाषा वर्गणाओं में भाषारूप परिणमने की निमित्तता ( उपादान कारणता) है, उसका आरोप तीर्थकर आदि प्रकृतियों में करके उन्हें कहा गई पानी पितिक; यह जा सम्बन्ध है । यह सम्बन्ध यद्यपि असद्भूत- उपचरित है। फिर भी ऐसा व्यवहार नियमसे होता है उसका मुख्य कारण काल प्रत्यासत्ति है, क्योंकि बाह्य व्याप्तिका नियम इसी आधार पर बनता है।
इससे स्पष्ट है कि असदभतब्यवहारके हमारे द्वारा कहे गये ये दो लक्षण नहीं है, समझाने की दो पद्धतियाँ है।
अपर पक्षका कहना है कि किन्तु महाँ पर बन्धका प्रकरण है और वन्ध दो भिन्न वस्तुओंमें होता है। अतः इस प्रश्नमें
भिन्नवस्तुनिषयोऽसद्भूतव्यवहारः ।
अर्थात् भिन्न वस्तु जिसका विषय हो यह असदभुत अनहारना है, यह लक्षण उपयोगी है। दूसरे वह लक्षण आध्यात्मिक दृष्टिले है और 'स्वाश्रितो निश्चयः' यह लक्षण भी आध्यात्मिक दृष्टिसे है। अत: दोनों लक्षण अध्यात्मष्टिवाले लेने चाहिए । जब निश्चयका लक्षण अध्यात्मालयकी अपेक्षा सहण किया मा रहा है तो व्यवहारनयका लक्षण भी अध्यात्मनयवाला लेना पाहिए।'
समाधान यह है कि प्रत्येक वस्तु भेदाभेदस्वरूप है। वहाँ अभेदको विषय करनेवाला निश्चयनय है और भेदको विषय करनेवाला व्यवहारनय है
तन्न निश्चयनयोऽभेदविषयो व्यवहारी भेदविषयः 1-आलापपद्धति ।
आलापपद्धतिम निदमयनय और व्यवहारनमके ये लक्षण मध्यात्मदृष्टिसे ही किये गये हैं। 'स्वाश्रितो निश्चयनयः' इस लक्षणमें भी स्व पद मभेदको हो सूचित करता है। हो 'पराश्रितो व्यवहारनयः' इरा लक्षण माया हा 'पर' शब्द भेद व्यवहारको तो पर कहता ही है। किसी भी प्रकार के उपचार व्यवहारको भी पर कहता है । इसलिए इस लक्षण द्वारा जहाँ अनादिरूढ़ लोक व्यवहारका निषेध हो जाता है वह भेदम्यबहारका भी निषेध हो जाता है। इस प्रकार स्वाथित निश्चय नयके कथन में दोनों प्रकारका व्यवहार निषिद्ध है ऐसा महाँ समझना चाहिए।