Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका ९ और उसका समाधान
अन्य प्रश्नों के उसमें आपने भी व्यवहारनय विषयको सत्यार्थ माना है।
'मोहनीय मावि द्रव्यकमोंका क्षय होता है तब विकारका निमित्त कारण हट जानेसे आत्माके रागद्वेष आदि नैमितिकभाव दूर हो जाते है, व 'कर्म, रागद्वेष आदि आत्मा के विभागभावोंके प्रेरक निमित्तकारण हैं और रागद्वेष आदि आत्मा के विकृत भाव मोहनीय आदि कर्मके प्रेरक निमित्त कारण हैं । इन दोनों कोंको आप परस्पर विरुद्ध बतलाते हैं किन्तु इन दोनों कचना कोई विद्धता नहीं है। जिस प्रकारका जिसने अनुमानको लिये प्रातिया कर्मो का उदय होता है उसके ते हैं। इसका सविस्तर कथन प्रथम प्रश्न के द्वितीय पत्र हम कर चुके हैं। स्थावर्ती क श्रेणीवाले जीवके परिणाम बहुत विशुद्ध होते है और उदयगत मोहनीय अतिसूक्ष्म होती है, किन्तु उस सूक्ष्म लोभके अनुरूप आत्माके परिणाम होत है उदद्यागत घातिया कर्मों के अनुरूप आत्मा के परि शाम होते है, इसलिये कर्मों को प्रेरक कारम कहा है। सहकारी कारणोंके सम्बन्ध सहित राग-द्वेषरूप आत्मापरिणाम से कर्मबंध होता है अतः आत्मपरिणाम कर्मसंघ के कारण हैं । कहा भी है-
सूक्ष्मसाम्पराय कर्मो को शक्ति
प्रेयते कर्म जीवन जीवः प्रेयंत कर्मणा ।
एतया: प्रेरको नान्यो नी नाविकसमानयोः ॥ १०६ ॥
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- उपासकययन पृ० २९ ज्ञानपीठ बनारस अथवा यशस्तिलकप
अर्थ- जीव फर्मको प्रेरित करता है और कर्म जीवको प्रेरित करता है। इन दोनोंका सभ्यम्य मौका ओर विके समान है। कोई तीसरा इन दोनोंका प्रेरक नहीं।
क्लेशाय कारणं कर्म विशुद्धे स्वयमात्मनि ।
मोष्णमम्बु स्वतः किन्तु तदौष्ण्यं वह्निसंश्रयम् ॥ २४७ ॥ - उपासकाध्ययन क्लेशका कारण है। जैसे जल स्वयं गर्म नहीं होता,
अर्थ - आत्मा स्वयं विशुद्ध है और कर्म उसके किन्तु आग के सम्बन्धसे उसमें गर्मी आ जाती है ।
कर्मोदयले ( रागद्वेष मोह ) का कारण है। हो जाने पर रागद्वेषादि कार्यका भी अभाव हो जाता है। प्रकार कहा है । जब दोनों कथन आगमानुकूल हैं तब उनमें जिनमके अनुरूप कार्य हो वह प्रेरक तिमि मा को यह कैसे ज्ञात हो गया कि जो निमित्त बलात् कार्य स्वकालको छोड़कर आगे-पीछे पर में उत्पन्न करता हो वह प्रेरक निमित्त है ।' स्वालका अर्थ परिणमन है, क्योंकि प्रत्येक द्रव्य अपने स्वभावसे प्रतिक्षण परिणमन करता रहता है। यह लक्षण सब द्रव्यों में घटित हो जाता है, इसलिये यह उनका स्वकाल है। इसी प्रकार श्रीमान् ६० फूलचो भी ० ६५ के विशेषार्थ कहा है-
कमका क्षय हो जानेपर वर्षात् कारणका अभाव मोलशास्त्र अध्याय १० प्रथम सूत्र भी इस परस्पर विरोध आपको कैसे दृष्टिगोचर हो गया ।
स्वकालका अर्थ ग्रहण होनेसे उसका अर्थ परिणमन लिया गया है। जितने भी पदार्थ है वे यद्यपि सदा ही परिणमनशील हैं स्यापि इस परिणमनकी धारामै एकरूपता बनी रहती है, जीवका अजोब ही जाय, या अजीवका जीव हो जाय ऐसा कभी नहीं होता।
कालके इस लक्षण द्वारा आगे पीछेका प्रश्न ही नहीं उठता। दूसरे आप भी जानते हैं और प्रत्यक्ष अनुभव में भी आता है कि विकारी पर्यायोंका कोई काल सर्वधा नियत नहीं है। जिस समय उभय ( अंतरंग
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