Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका ९ और उसका समाधान
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बहिरंग दोनों कारणों से ही कार्यको उत्पत्ति स्वीकार की है। प्रश्न नं. १के वितीय उत्तर में मापने स्त्रय लिखा है-ऐसा नियम है कि प्रत्येक प्रश्यके किसी भी कार्यके पृथक उपादान कारणके समान उत के स्वतंत्र एक या एकसे अधिक निमित्तकारण भी होते हैं । इसीका नाम कारवसाकल्य है । और इसीलिये जिन आगममें सर्वत्र यह स्वीकार किया गया है कि उभय निमित्तसे कार्यकी उत्पत्ति होती है।
आपने घवल पु.१२ १०३६ को कुछ पक्तियोंको उद्धृत करते हुए वह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि अंतरंग कारण प्रधान है। यदि वह पूर्ण प्रकरण दे दिया गया होता तो यह स्पष्ट हो जाता कि अंतरंग कारण से क्या प्रयोजन है। अब प्रश्न यह रह जाता है कि सर्वच अंतरंग कारण प्रधान है या इस स्थलपर प्रधान है ? सर्वप्रथम विवक्षित स्थलकी मीमांसा की जाती है। पृ. ३५ सूत्र ४६ में यह कहा गया है कि 'भाषकी अपेक्षा नामकमकी जघन्य वेदना अनन्तगुणी है।॥४६॥' इसके पश्चात् सूत्र ४७में यह कहा गया है कि 'उससे ( नामकर्मको जघन्य वेदनासे ) वेदनीयकर्मकी जघन्य वेदना अनन्तगुणी है १४७॥ वेदनीयकर्मकी जघन्य बंदना चौदहवें गुणस्थानके अन्तिम समय में होती है । जिसके असाता धेदनीयका उदय होने के कारण साता वेदनीयका द्विचरम समयमें क्षय हो गया है और चरम समयमें मात्र असातावेदनीय रह गई है। और नामकर्मका जघन्य अनुभाग, हतसमुत्पत्तिक कर्मयाले सुक्ष्म निगोदिशा जीके होता है। इसपर यह शंका हुई कि बदनीय कर्म ( असाता वेदनीयकर्म) का अनुभाग सपकश्रेणीम संसात हजार अनुभाग काण्डकघातों के द्वारा प्राप्त हो चुका है, इसलिये जो चिरंतन अनुभागकी अपेक्षा अनलगुणा हीन होता हुआ अयोगवलीके अन्तिम समयमें एक निवेकका अवलंबन लेकर स्थित है वह भला जो अपक्थेणीम घातको नहीं प्राप्त हुआ है और जो संसारी जीवोंके काण्डकघातोंके द्वारा अपने उत्कृष्टको अपेक्षा अनन्तगुणा हीन है, ऐसे नामकर्मके अनुभागले अनन्तगुणा कोसे हो सकता है ? इसका उत्तर देते हुए श्री दोरोन स्वापी लिखते है-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि केवल भकषाय परिणाम ही अनुभागघातका कारण नहीं है (अर्थात् कर्मों को फलदानशक्तिके घातका कारण नहीं है) । किन्तु प्रकृतिगत शक्तिकी अपेक्षा रखनेवाला परिणाम अनुभागपातका कारण है। उसमें भी तरंग कारण प्रधान है, उसके उत्कृष्ट होनेपर बहिरंग कारण स्तोक रहनेपर भी अनुभागघात बहुत देया जाता है तथा अंतरंगके स्तोक रहनेपर बहिरंग कारणके घहुन होते हुए भी अनुमागघात बहुत नहीं होता।' यहाँ पर यह विचार करना है कि अंतरंग कारण कौन है 'अपाय परिणाम' मा प्रकृतिगत शक्ति की अपेक्षा रखनेवाला परिणाम । अकषाय परिणाम तो जौबका है और 'प्रकृतिगत शक्तिकी अपेक्षा रखनेवाला परिणाम' पुद्गलका है । यहाँपर पुद्गल परिणामको अंतरंग परिणामसे ग्रहण किया है और जीवपरिणामको बहिरंग कारण ग्रहण किया है। जो मात्र आत्मपरिणामस मोक्ष मानते है उनके लिये यह विद्यारणोय हो जाता है कि दृश्यकमकी शनित भी अपेक्षित है, मात्र अपाय परिणामसे ही कमौका घारा संभव नहीं है। इसी धवल पुस्तक १२ में सहकारी कारणों की प्रधानता स्वीकार की गई है
'शंका-एक परिणाम भिन्न कार्योको करनेवाला कैसे होता है? नहीं, क्योंकि, सहकारी कारणों के सम्बन्ध भेदसे उसके भिन्न कार्याक करने में कोई विरोध नहीं है।' -पृ. ४५३ ।
'शंका-एक संक्लंकासे असंण्यात लोकप्रमाण अनुभागसम्बन्धी छह स्थानोंका बन्ध कैसे बन सकता है।
उत्तर--यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, अनुभागबन्धाध्ययसानोके असंख्यात लोकप्रमाण छह स्थानोंसे सहित सहकारी कारण भेदके कारण, एक ही रांबलेशसे ।कारी कारणोंके भेदीकी संध्याके बराबर अनुभाग स्थानोंके बन्धमें कोई विरोध नहीं आता।--पु. ३० ।