Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर (खानिया ) सस्वचर्चा
शब्दोंसे स्पष्ट है 1 यदि ऐसा न माना जाये तो कलश नं. २२०का कलश नं.१६ बधाधिकार तथा टीका गाथा नं० २८३-२८५ रो विरोधका प्रसंग आजावेगा, किन्तु एक ही ग्रन्थमें पूर्वापर विरोष सम्भव नहीं है।
आगने लिखा है कि राति-दर भव्य भी मुनिचर्या (व्यवहारचारित्र )के द्वारा अहमिन्द्र पद पा सकता है, किन्तु आपका ऐसा लिखना आगमानुकुल नहीं है, क्योंकि दूगतिदूर भव्य को शीलबली विधवाका दृष्टान्त दिया गया है। अर्थात् जिस प्रकार शीलवतो विधवाके पतिका निमित्तकारण न मिलनसे पुत्रकी उत्पत्ति नहीं हो सकती, उसी प्रकार रातिदुर भव्यको गुरु उपदेश आदिका निमित्त न मिलने से सम्यग्दशन को प्राप्ति नहीं होती, इसीलिये दरातिदूर भव्य जीव मुनिलिंग अथवा व्यबहारचारित्र धारणकर अहमिन्द्र नहीं हो सकते । दूरातिदूर भव्य-नित्यनिगोदरें होते हैं, क्योंकि उनको कभी भी निमित्तकारण नहीं मिलेगा । जयधवल पु० १ पृ० ३८९ पर कहा भी है-'किन्हीं जीवोंके अवस्थित दिमक्तिस्थान ( मोहनीय कर्मके २६ प्रकृतिकस्थान ) अनादि अनन्त होता है, क्योंकि जो अमव्य है या अभव्योंके समान नित्यनिगोदको प्राप्त हुए भाग हैं उनके अवस्थित स्थानके सिवाय भुजगार या अल्पतर स्थान ( अन्य स्थान) नहीं पाये जाते है। इस प्रकार दूरातिदूर मध्यके विषयमें आपका कथन आगमानुकूल नहीं है।
'व्यवहारचारित्र प्रत्येक शामें सफल हैं' ऐसा कहने से हमारा यह प्रयोजन रहा है कि जो भव्य है उनके लिये तो व्यवहारबारित्र परम्परा मोक्षका कारण है तथा निश्चय पारित्रका साधक है और जो अभव्य है उनको कुगनिमें गिरनेसे बचाता है। इस विषय में निम्न उपयोगी श्लोक है
बरं प्रसैः पदं देवं नायतैबत नारकं । छायातपस्थयोमदः प्रतिपालयतोमहान् ॥३।।
-इष्टोपदेश अर्थ-व्रतोंके द्वारा देवपद प्राप्त करना अच्छा है, किन्तु अवलोके द्वारा नरकपद प्राप्त करना अच्छा नहीं है । जैसे छाया और धूपमें बैठनेवालोंमें अन्तर पाया जाता है, वैसे ही व्रत अनतके आचरण पालन करनेवालोंमें अन्तर पाया जाता है।
निश्चय व्यवहार चारित्रकी चर्चा प्रश्न नं० ४ के उत्तर में सविस्तार हो चुकी है। उसको पुनः यहाँ लिखनेसे पुनरुक्तिका दोष आ जायगा । इस सम्बन्ध में प्रश्न नं.४ पर हमारा प्रपत्र देखना चाहिये ।
अपने सर्वार्थसिद्धि ७।१९ की टीका उद्धृत की है। उसमें आपने इन पदों पर पान नहीं दिया हैचारित्रमोहोदये सत्यपारसम्बन्ध प्रत्यनिवृत्तः परिणामी भावागारमित्युच्यते ।
चरित्रमोहके जदय होनेसे (२. परसे सम्बन्धका त्याग नहीं किया ऐसे जो परिणाम वें भावागार कहे जाते हैं। इस तो आपके मत का ही खण्डन होता है-(१) कर्मोदयको होनेपर आत्म-परिणाम होते हैं यहाँ ऐसा कहा गया है जो आपकी मान्यताके विरुद्ध है। (२) 'घरसे सम्बन्धका त्याग नहीं किया' ( अर्थात् परवस्सुका त्याग नहीं किया ) इसरो भी यह सिद्ध हुआ कि परवस्तुका त्याग किये बिना भावोंका त्याग नहीं हो सकता । यह ही तो श्री अमृतचन्द्र सूरिने समयसार गाथा २८३-२८५ की टीकामें कहा है। जिसको आप स्वीकार नहीं कर रहे हैं। भावागारका त्यागनाला घरमें नहीं रह सकला, किन्तु वान्यागारमें ठहर सकता है । आपने यहां पर अर्थ ठीक नहीं किया। आपने स्वयं अर्थ इस प्रकार किया था—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यहाँ पर भावागार विवक्षित है। चारित्रमोहनीयका उदय होनेपर जो परिणाम घरसे निवृत्त नहीं है वह भावागार कहा जाता है । वह जिसके है वह वनमें निवास