Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका और उसका समाधान
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अर्थात् शुभाशुभ मन-वचन-कायका व्यापार तथा उस व्यापारसे उपार्जित शुभाशुभ कर्म मोक्षके कारण नहीं होते ।
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शुभाशुभ मन-वचन-काययोग के द्वारा शुभाशुभ कर्मका आसव होता है ऐया तत्वार्थसूत्र अध्याय द्रव्पकर्मका छह कहा गया है। इस टोकासे भी स्पष्ट है कि इन तीन गाथाओं कर्मसे अभिप्राय से है। इस गाथाओंके दूसरे कला में लाये हुए चावल्यामुपेति' (जब तक कर्म विनाका नव है) तथा 'समुल्लसस्यवंशतो कर्म' (कर्मके उदयको जबरदतीने आरमाके पद बिना कर्म होता है) इसी कलशको जयचन्द्र
उत्थानका महान् विधम् तथा अनेकों प्रत्यों के आगमानुकूल अनुवाद करनेवाले श्रीमान्
इस प्रकार लिखते हैं
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आगे आशंका उत्पन्न होती है कि अविस्तसम्यग्दृष्टि आदिके जब तक कर्मोदय हैं तब तक ज्ञान मोक्षका कारण कैसे हो सकता है।
इसका भी
१११ का जो
है कि लोग गायायोंमें कर्मका प्रकरण है। कलश मं० आपने दिया है उनमें भी अनावरणादि मुगल' पदयातक है। आप लिखते है कि 'यद्यपि निमित्तोंका सभ्यानान करानेके लिये मागम कर्मीको व्यवहारनयप्रधान कथन बहुबललासे आया है इसमें सन्देह नहीं, परन्तु हम अबको संसारका कारण इसका अपना अपराध है ।' 'इसमें यद्यपि निमित्तोंका सम्यग्ज्ञान करानेके लिये वे शब्द किसी आगमके तो है नहीं, किन्तु आपको जो नवीन कल्पना है जो कि मान्य नहीं है। व्यवहारनय प्रधान इसलिये है कि दो भिन्न क्योंका परस्पर सम्बन्ध व्यवहारनयका विषय है, निश्चयनयका विषय नहीं है ऐसा आपको भी स्वीकार है। 'अपराध' सहेतुक है या निर्हेतुक हैं? यदि निर्हेतुक है तो वह जीवका स्वभाव हो जायगा और नित्य हो जायगा क्योंकि जो स्व-प्रत्यय नहीं वह स्वाभाविक पर्याय है ऐसा आपने प्रश्न नं० ४ व ११ के उत्तर में स्वीकार किया है। दूसरे जिसका कोई हेतु नहीं होता और विद्यमान है वह नित्य है ( आप्तपरीक्षा पृ० ४ वीर सेवामन्दिर ) यदि अपराध सहेतुक है वो हेतुके अभाव के बिना अपराधका भी अभाव नहीं हो सकता। जैसा कि समयसार गाथा २०३-२८५ की टीका श्री अमृतचन्द्र आचार्दनं स्पष्ट शब्दों में लिखा है- 'आत्मा आपसे रागादि मावका अकारक है। इसलिये यह सिद्ध हुआ कि पर अन्य तो निमित्त
है और नामसिक आत्मा के रागादिक भाव (अपराध) है। जब तक रागादिकका निमित्तभूत पर का प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान न करे तब तक नमिशिकनूत भगादि भारों (पथ) का प्रतिक्रमण प्रत्याश्यान नहीं हो सकता। इसलिये अपराधके कारण पर-द्रव्यका प्रथम त्याग होना चाहिये। उस के पश्चात् ही अपराधका दूर होना सम्भव है यह है कि अपराध दूर हुए विश्व कल्याण नहीं हो सकता, किन्तु उस अपराध श्यागका मार्ग वध है पर वस्तुस्वाग बिना अपराधका माग सम्भव नहीं है। दिगम्बरेतर समाज तो बाह्य स्थान दिना भी अपराधका त्याग मानते है किन्तु दिगम्बर धर्ममें तो प्रथम पर द्रश्यका त्याग बतलाया है। अथवा पूर्व संस्कारवश कुछ दिगम्बरी मो इतर समाज के समान प्रथम अपराम स्यागको बतलाते है।
आपने २२० उद्धृत किया किन्तु वह तो एक
कलश ।
किये लिखा गया है, जो मात्र २११ में 'रामजन्मनि निमित
परसे हो रामदत्त मानते है। जैगा कि गल नं० परद्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते' ( जो पुरुष रागको उत्पत्ति में परद्रव्यका ही निमित्तपना मानते है ) इन