Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका ९ और उसका समाधान चौथे खण्ड में यह प्रश्न शेष रह गया कि छटनेका उपाय क्या है? इसका असर भी बहुत सरल था कि 'सम्यग्दर्शन-जान-चरित्र' छूटनेका उपाय है। किन्तु यह उत्तर न देकर प्रथम उत्तर में यह लिखकर कि व्यवहारधर्मस बीब छट नहीं सकता, व्यवहारधर्मका सर्वथा निषेध करना प्रारम्भ कर दिया । आपका ऐसा करना अप्रासंगिक था, क्योंकि निश्चय व व्यवहार धर्मसम्बन्धी स्वतंत्र प्रश्न नं.४ है। फिर भी हमको इस पर लिखना पड़ा। अब द्वितीय उत्तरमें आपने निश्चय-व्यवहारधर्म के साथ-साथ प्रेरकनिमित्त तथा नियतिके नवीन प्रसंग उपस्थित कर दिये । यद्यपि निमित्त के लिये स्वतंत्र प्रश्न नं०६ तथा नियतिके लिये स्वतंत्र प्रश्न नं०५ है। फिर भी उत्तरों में अप्रासंगिक कथनोंसे चर्चा जटिल बन जाती है और उलझन पैदा हो जाती है।
यह तो सुनिश्चित है कि व्यवहारधर्म साधन और निश्चयधर्म साध्य है। श्री कुन्दकुन्द भगवानने समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय आदि ग्रन्धोंम तथा श्री ममतचन्द्रमुरिव श्री जयसेन आपार्यने श्री समयसार, श्री प्रवचनसार व श्री पंचास्तिकायको टोकाओंमें सथा श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने द्रव्यसंग्रहम, श्री ब्रह्मदेवसूरिने बृतद्रव्य संग्रहको टीका तथा अन्य आचार्योने भी भिन्न-भिन्न अन्योंमें यह कथन किया है कि व्यवहारधर्म तीर्थ या स्वर्णपाषाण और निश्चयचर्म तीर्थफल अथवा स्वर्ण है। इसका विस्तारपूर्वक विवेचन प्रश्न नं. ४ के प्रपत्र में हो चुका है जिसमें बहद्रव्यसंग्रह गाथा १३ की टोकाका प्रमाण देते हुए यह भी बतलाया गया है...जो निश्चय-व्यवहारको साध्य-साधकभावरो मानता है वह सम्यग्दृष्टि है अर्थात् ओ निश्चय-व्यबहारको साध्य-सारपसाव नहीं पाता प्रहा . इस हम्पय जय प्रमाण प्रश्न नं.४ में दिये जा चुके हैं। उनको पुनः लिखकर उत्तरका कलेवर बढानेसे कुछ लाभ नहीं है। मात्र प्राचीन गाथा दी जाती है
जइ जिणमय पचजह ता मा चवहारणिच्छए मुबह । पुषण विणा छिजइ तित्थं अण्णण उण तच ॥
-समयसार गाथा १२ की टीका अर्थ-हे भव्य जीवो ! यदि तुम जिन मतफा प्रवर्तन करना चाहते हो तो काबहार और निश्चय दोनोंको मत छोड़ो, क्योंकि व्यवहार नयके बिना तो तीर्थ (साधन)का नाश हो जायगा, निश्चयके बिना तत्व (साध्य)का नाश हो जायमा।
___ इतना स्पष्ट आगम होने पर भी आप लिखते हैं-'निश्वय रत्नत्रयस्वरूप जितनी विशुद्धि प्रगट होती जाती है उसके अनुपात में उसके बाह्य में द्रव्यकर्म का अभाव होता हुआ ब्यबहारधर्मको भी प्राप्ति होती जाती है ।' आपका यह लिखना आगमविरुद्ध है । प्रथम तो द्रब्य कर्मोदयके अभाबमें अन्तरंग विशुद्धता प्रगट होतो है, क्योंकि मलिनताका कारण द्रव्यामोदय है और कारण के अभाव में कार्यका भी अभाव हो जाता है । जैसे दोपकके अभाव में प्रकाशका भी अभाव हो जाता है इसी प्रकार व्यकर्मोदयके अभाव में मलिनताका अभाव हो जाने से विशुद्धता प्रगट हो जाती है। जिस प्रकार प्रकाशका अभाव दीपकके अभावका ज्ञापक तो है, क्योंकि दीपक और प्रकाशमैं अविनाभादिसम्बन्ध है, किन्तु कारण नहीं है उसी प्रकार अन्तरंग विशुद्धता कर्मोदसके अभावका ज्ञापक तो है, किन्तु प्रकट कारण नहीं है । जैसे-जैस कमपटलोंका अभाव होता जाता है वैसे-वैसे ही अप्रकट सम्यग्दर्शनादि रलस मुह होता जाता है (पत्रले १ पृ. ४२) प्रथमोपशम राम्यग्दर्शनको उत्पत्तिका क्या क्रम है, जिनको इसका ज्ञान है वे भलिभाँति जानते है