Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका ९ और उसका समाधान
५५७ अनंतवार मुनिव्रत धार थी पं० दौलतरामजीने अपने छहळाला ग्रन्थको चौथी खालमें लिखा है
मुनिग्रत धारि अनन्तवार प्रीवक उपजायो।
पनिज आतम ज्ञान बिना सुख लेश ने पायो । अर्थ-इस जीवने अनन्तों बार मनिव्रत धारण करके नौवें ग्रेनेयिक तकका अहमिन्द्र पद पा लिया, परन्तु भेदविज्ञान के विना उसे ( अतीन्द्रिय ) सुखका लेशमात्र भी नहीं मिल सका ।
इसमें दो बातें ध्वनित हो रही है-(१) तो यह कि ज्ञानको सफलता कोरे तत्त्वज्ञानसे नहीं है, ज्ञानकी सफलता भेदविज्ञान ( सम्यग्ज्ञान ) से है । (२) भेदविज्ञानको सफलता अथवा चारित्रको सफलता भेदविज्ञान के साथ है।
__णुत्रत महाव्रत आदि व्यवहार चारित प्रत्येक दशाम सफल है। यदि कोई मनुष्य अभय है, मिथ्यादृष्टि (प्रश्यलिगो) है या दूरातिदूर मत्र्य है तो वह भी मुनिचर्या द्वारा अहमिन्द्र पद पा राकता है । इससे अधिक उन्नत पद पानेको उसमें योग्यता नहीं है । अनः ऐसे अभव्य आदि मुनियोंके उद्देश्यसे श्री पं० दौलतरामजी ने पह पद्य लिखा है।
दूसरे-इस पद्यसे यह बात भी प्रमाणित होती हैं कि मुक्ति के लिये भो अन्तरंग कारण ( भव्यत्व सम्यक्त्वरूप उपादानकारण ) तथा श्रावधर्म मनिधर्मरूप व्यवहार चारित्ररूप बहिरंगनिमित्त कारणको अनिवार्य आवश्यकता है । मदि उन दोनों कारणोंमेंसे एक भी कारणकी कमी होगी तो मुक्ति न मिल सकेगी। श्री कुन्दकुन्द आचार्यने व्यवहारचारित्रका कितनी दृढ़तासे समर्थन किया है । देखिये
ण वि सिज्मइ वत्यधरो जिणसासणे जइ वि होह तिस्थयरो । णगो विमोक्समगो सेसा उम्मग्गया सम्वे ॥२३ ।।
-सूत्रपपाहु अर्थ-जिनशासनके अनुसार यदि तीर्थकर भी वस्त्रधारी असंयमी हो तो वह आत्मसिद्धि नहीं पा सकता।
धुव सिद्धी सिस्थयरो चउणाणजुदो करेह तवयरणं । णाऊण धुवं कुज्जा तवयरणं णापत्तो वि ।।६।।
-मोक्षपाउद अर्थ-तीर्थकरको उसी भवरो नियमसे मुक्ति होती है। तीर्थङ्करको सम्यक्त्वके साथ तीन ज्ञान जन्मसे तथा मुनिदीक्षा लेते रामय मनःपर्यमज्ञान भी हो जाता है। इस तरह चार जामधारी होकर भी वे मुक्त होने के लिये तपश्चरण करते है ऐसा जानकर ज्ञानी पुरुषको तपश्चरण अवश्य करना चाहिये।
आपने अपने लेखके अन्तमें जो समयसार कलशके दो पद्य दिये है वे श्री अमक्षचन्द्र सूरिने निश्चयनयकी दृष्टिसे लिखे हैं। किन्तु उन्होंने इन पद्योंसे शुद्ध पात्मतत्त्व प्राप्त करने के लिये व्यवहारवारित्रका निषेध नहीं किया है । इसका प्रमाण उनका विरचित पुरुषार्थसिद्धधुपाय ग्रन्थ है, जिसमें कि सूरिने अहिंसा धर्मका तथा श्रावकधर्मका सुन्दर विवेचन किया है। इसके सिवाय आध्यात्मिक आचार्य श्री कुन्दकुन्ध तथा