Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका ८ और उसका समाधान
सत्यभाषा, मोषभाषा, सत्यमोपभाषा और असत्यमोषभाषाले जिन द्रव्योंको महणकर सत्यभाषा, मोषभाषा, सत्यमोपभाषा और असत्यमोषभाषारूपसे परिणमाकर जीव उन्हें निकालते हैं, उन द्रव्योंकी भाषाद्रव्यवर्गणा संज्ञा है ।।७४४||
इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए वीरसेन आचार्य अपनी धवला टीकामें उक्त सुत्रको व्याख्या प्रसंगसे लिखते है--
भासादग्वबग्मणा सरच-मोस-सच्चमोस-असच्चमोसभेदेण च उबिहा। एवं चडचिहतं कुदी णम्वदे १ चड़चिहभासाकजपणहाणुचवत्तीदो। उधिहभासाणं पाओग्गाणि जाणि दुश्वाणि ताणि घेण सरच-मोस-सच्चमीस-असञ्चमोसमासाणं सरूवेण तालुवादिवावारेण परिणमाविय जीवा महादो णिस्सारति ताणि दुग्वाणि भासादस्वचगणा णाम ।
भाषा द्रष्यवर्गणा सत्य, मोष, सत्यमोष और असत्यमोषके भेदसे ४ प्रकारको है 1 शंका-यह ४ प्रकारको है ऐसा किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान---उसका ४ प्रकारका भाषारूप कार्य अन्यथा बन नहीं सकता है, इससे जाना जाता है कि वह ४ प्रकारको है।
४ प्रकारको भाषाके योग्य जो द्रव्प है उन्हें ग्रहकर तालु आदिके श्यापार द्वारा सत्यभाषा, मोषभाषा, सत्यपापा और बतायामाषा ५ वरणमाकरजीदमसे निकालते हैं, अतएव उन द्रव्यों की भाषाद्रव्यवर्गणा संज्ञा है ॥७४४॥
यह आगमप्रमाण है । इसमें साष्ट मतलाया गया है कि जो पाषा सत्यरूप परिणमती है, जो भाषा असत्यरूप परिणमती है, जो भाषा उभयरूप परिणमती है और जो भाषा अनुभयरूप परिणमती है उसका उस उस प्रकारका परिणमन न तो पुरुषके ताल आदिके व्यापारसे उत्पन्न किया जा सकता है और न ही पुरुषको इच्छा अथवा ज्ञानदिदोषसे उत्पन्न किया जा सकता है। किन्तु जिस काल में सत्याविरूप जिस प्रकारको भाषा उत्पन्न होती है उस कालमें वह सत्यादि भाषावर्गणायत अपने अपने उपादानके अनुसार हो उत्ताल होली है । मात्र उत्पत्तिके समय मथासम्भव पुरुषका ताल आदिका म्यागार तथा अन्य भब्य जीवोंका पुण्योदय आदि निमित्त अवश्य है । इनका अनादिकालसे ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक योग चला आ रहा है। अतएव शब्दों में पदार्थोकी अर्थप्रतिपादकता उनकी सहज योग्यताका सुफल है, अन्य तो उसमें निमित्तमात्र है ऐसा यहाँ निश्चय करना चाहिये । इसी तथ्यको ध्यानमें रखते हुए आचार्य माणिक्यनंदिन अपने परीक्षामुख नामक न्यायग्रंथमें लिखा है
सहजयोग्यतासंकेतवशादि शब्दादयः वस्तुप्रतिपत्ति हेतवः ॥ -अ० ३ सूत्र १०॥ सहजयोग्यताके सद्भाव में संकेतके वशसे शब्दादिक वस्तुप्रतिपत्ति के कारण है 11 -40 ३ सूत्र १००।
जिस प्रकार ज्ञान और ज्ञेयमें ज्ञापक और ज्ञाप्य शक्ति सहज पाई जाती है, वह किसी पुरुषका कार्य नहीं है, उसी प्रकार अर्थ ( वस्तु) और शब्दोंमें प्रतिपाद्य और प्रतिपादक शक्ति सहन होतो है, वह किसी पुरुष के सासु आदिके व्यापारसे जायमान नहीं है, अतएव शब्दों में सहज ही प्रतिपादकता पाई जाती है और उसीसे विक्षित शब्द द्वारा प्रतिपाद्यभूत विवक्षित पदार्थका प्रतिपादन किया जाता है । शब्दों द्वारा पदापोंक प्रतिपादनरूप कार्यों में यद्यपि पुरुषके ताल आदिका ब्यापार अवश्य ही निमित्त है, परन्तु उपादानके अमावमें