Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शका ८ और उसका समाधान
५३५ १. केवली जिनके साथ दिव्यवनिका सम्बन्ध जब हम केबली भगवान् या केवलज्ञानके साथ दिव्यध्वनिका क्या सम्बन्ध है और वह सत्यार्थ है या असत्यार्थ इस प्रश्न पर विचार करने लगते है तब हमें दिव्यध्वनिके उत्पत्ति पक्ष पर भी विचार करना आव. श्यक हो जाता है, क्योंकि दिव्यध्वनि पोद्गलिक भाषा वर्गणाओंकी व्यञ्जन पर्याय है, इसलिए उपादानकी दृष्टिश भाषा घर्गणाएँ हो दिव्यज्वनिरूप परिणमती है। इस प्रकार भाषावर्गणा और दिव्यध्वनि इन दोनों में उपादान-उपादेयसम्बन्ध है। निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धका विचार दिव्यम्वनिकी उत्पत्ति पक्षको लक्ष्य में रखकर ही किया जा सकता है। अपर पक्ष केवली भगवान् और केवलज्ञानके साथ दिव्यध्धानका क्या सम्बन्ध है यह प्रश्न तो उपस्थित करता है, किन्तु जब इस प्रश्नको ध्यान में रखकर सम्बन्धको स्पष्ट करने के अभिप्रायसै दिपध्वनिकी उत्पत्तिके ऊपर विचार किया गया तो वह अपनी मान्यताको कमजोर होता हआ देखकर उसे छिपाने के लिए प्रतिशंका ३ में लिखता है
'आपने अपने द्वितीय उत्तरमें आगमविरुद्ध तथा अपनी मान्यताके विरुद्ध दो द्रव्यों तथा उनकी पर्यायोंमें परस्पर कर्ता-कर्म के कुछ सिद्धान्त लिख दिये है, जो कि अप्रासंगिक है, क्योंकि कर्ता-कर्मसम्बन्धी मूल प्रश्न हो नहीं है।' इत्यादि।
ऐसा लिखनेके पूर्व अपर पक्षने हमारे उत्तरको गोलमाल बतलाया है सो इमका विचार तो उसे स्वयं करना है कि हमारा उत्तर गोलमाल है या उसका ऐसा लिखना गोलमाल है। एक ओर तो वह 'शास्ता शास्ति सस्तो हितम्' इत्यादि प्रमाण उपस्थित कर जिनदेवका वाणी के साथ कर्ता-कर्मसम्बन्ध बतलानेका उपक्रम करता है और दूसरी ओर तथ्यरूपसे कर्ता-कर्मसम्बन्ध आदि पर प्रकाश डालने वाले तर्कसंगत प्रमाण उपस्थित किये जाते हैं तो उसकी ओरसे यह कहा जाता है कि प्रकृतमें 'कर्ता-कर्मसम्बन्धी मूल प्रश्न ही नहीं है।' यदि यहाँ अपर पक्षका प्रश्न कर्ता-कर्मसम्बन्धी नहीं था और वह उक्त प्रश्न द्वारा कोई दुसरा सम्बन्ध जानना चाहता था तो उसे प्रतिशंका ३ में हमें लक्ष्य कर यह वाक्य नहीं लिखना चाहिए मा कि "फिर भी आप इस प्रश्न के उत्तरमें हेतुक को स्वीकार नहीं कर रहे हैं।' स्पष्ट है कि अपर पक्षके मनमें दिव्यध्वनि कर्म और भगवान् तोकिर हेतुकर्ता (प्रेरककर्ता ) यही भाव समाया हुआ है तथा प्रश्न भी इसी आशयसे किया गया होना चाहिए।
साधारणत: हेतुकर्ता वाब्द भागममें ३ अर्थो में प्रयुक्त हुआ है
(२) एक तो इतनाको कालका लक्षण बतलाकर सर्वार्थसिद्धि आदि आगमकालको हेतुकर्ता कहा है। यद्यपि काल उदासीन निमित्त है पर इस अर्थमें भी हेतुकर्ता शब्द का प्रयोग होता है यह इस प्रसंगमें स्पष्ट किया गया है।
(२) दूसरे जो क्रियावान् द्रव्य अपनी क्रिया द्वारा अपर द्रश्यकी क्रिया में निमित्त होते है उनके लिए भी पंचास्तिकाय गाया ८८ आदि आगममें हेतुकर्ता शब्दका प्रयोग हुआ है।
तथा (३) तीसरे जो सजीवधारी प्राणी अपने विकल्प और योग द्वारा पर द्रव्यके कार्यमें निमित होते हैं उनके लिए भी हेतुका शब्दका प्रयोग समयसार गाथा १०० आदि आगममें किया गया है।
__ इस प्रकार ३ अर्थोम हेतुकर्ता शब्दका प्रयोग आगममें दृष्टिगोचर होता है। उनमेसे किस अर्थमें अपर पक्ष के वली जिनको दिव्यध्वनिके होने में हेतु कर्ता स्वीकार करता है इसका स्वयं उसको ओरसे किसी प्रकारका स्पष्टीकरण नहीं किया गया यह आश्चर्य की बात है। आगममें सब प्रकारके प्रमाण है और वे भिन्न-भिन्न