Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर ( खानिया ) तत्व चर्चा
भिप्राय लिखे गये हैं, परन्तु उन सबको एक जगह उपस्थित कर देने मात्रसे वस्तुका निर्णय नहीं हो सकता । यहाँ तो यह विचार करना है कि केवलोका दिव्यध्वनिके साथ योगके माध्यम से सम्बन्ध हूँ या तीर्थकर प्रकृति आदिके माध्यम से सम्बन्ध है या केवलज्ञान के माध्यमले सम्बन्ध है । मूल प्रश्न में केवलज्ञान अथवा केवलीको आत्मासे दिव्यध्वनिका कोई सम्व है ? यह प्रश्न पूछा गया है। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि अपर पक्ष केवलज्ञान और केवलोकी आत्मा इन दोनों को एकरूप से स्वीकर करके उनके साथ दिव्यध्वनिका सम्बन्ध जानना चाहता है । अब यदि प्रकृतमें हेतुकर्ता शब्दका अर्थ त्रिकल्प और योग किया जाता है तो इस प्रकारका हेतूकर्ता रूप सम्बन्ध केवलज्ञानके साथ दिव्यध्वनिका नहीं बन सकता, क्योंकि केवली के योगका सद्भाव होने पर भी विकल्पका सर्वथा अभाव है, इसलिए योग और विकल्परूप निमित्त अर्थ में यहाँ केवलीको हेतुकर्ता कहना न तो अपर पक्षको ही मान्य होगा और न प्रकृतमें यह बर्थ किया ही गया है।
कदाचित कहा जाय कि योगकी अपेक्षा केवलीको विव्यध्वनिका हेतुकर्ता कहने में क्या हानि है सो इस स्थिति और सम्बन्ध में हमारा निवेदन यह है कि आचार्य अमृतचन्द्रने प्रवचनसार गाथा ४५में केवलोके गमन, fessor आदि क्रियाओंके प्रवर्तनको जो स्वाभाविक कहा है सो वहीं उनके कहनेका यही अभिप्राय होना चाहिए कि यद्यपि दिव्यध्वनि के प्रवर्तनमें वपनयोगको प्रमुखरूपसे निमित्तता हूँ फिर भी वचनयोगको विकल्प के अभाव में हेतुकर्ता कहना उचित नहीं है। उसके कई कारण हैं । यथा-
(१) केवली भगवान् केवलज्ञानसे सदा उपयुक्त होते है । उनके उपयोग में जिस प्रकार अन्य समस्त त्रिकाल और त्रिकोकवर्ती ज्ञेय प्रतिभासित होते हैं उसी प्रकार दिव्यध्वनि भी प्रतिभासित होती है । विश्यनिप्रवर्तन के लिए वे अलग से उपयुक्त नहीं होते । अतएव केवलज्ञान दिव्यध्वनिके प्रवर्तनका साक्षात् निमित्त नहीं है । तत्वार्थातिक अध्याय ६ सूत्र १ में वचनयोगको क्षयनिमित्तक मानने पर जो आपत्ति आती है उसका विचार करते हुए अन्तमें यही फलित किया है कि चूँकि केथलीकी आत्मा क्रियाशील है, अतएव उनके ३ प्रकारकी घर्गणाओं के आलम्बनकी अपेक्षा प्रदेश परिस्पन्दरूप योग होता है। यह शंका इसलिए उठी कि ज्ञानावरणादि कर्मो का क्षय अयोगकेवली और सिद्धोंके भी पाया जाता है। ऐसी अवस्था में यदि क्षयको वचनयोयका प्रमुख निमित्त माना जाता है तो अयोगकेवली और सिखोंके भी वचनयोग होना चाहिये । किन्तु उनके वचनयोग नहीं होता, इससे स्पष्ट विदित होता है कि वचनयोगका प्रमुख कारण क्षय नहीं है, किन्तु वचन वर्गओंका आलम्बन ही वचनयोगका प्रमुख कारण है । तच्चार्थथातिकका वह पूरा उल्लेख इस प्रकार है---
यदि क्षयोपशमब्धिरभ्यन्तरहेतुः क्षये कथम् ? क्षयेऽपि हि सयोग केवलिनः त्रिविधो योगः इष्यते । अथ क्षयनिमित्तोऽपि योगः कल्प्यते, अयोगकेवलिनां सिद्धानां च योगः प्राप्नोति ! नैष दोष:, क्रियापरिणामिन आत्मनस्त्रिविधवर्गणकम्बनापेक्षः प्रदेशपरिस्पंदः सयोगकेवलिनो योगविधिविधीयते, तदालम्बनाभावात् उत्तरंषां योगविधिर्नास्ति ।
यह उल्लेख अपने में बहुत स्पष्ट । इसमें जिस प्रकार योगप्रवृतिका प्रमुख कारण ३ प्रकारकी घर्गणाओंके आलम्बनको बतलाया है उसी प्रकार दिव्यवनिका प्रमुख कारण भाषावगंणाओंका आलम्बन हो हो सकता है, अन्य नहीं। यही कारण है कि हमने अपने प्रथम और द्वितीय उत्तर में योगके ऊपर विशेष जोर दिया था और साथ में यह भी लिखा था कि योगकी अपेक्षा केवली या केवलज्ञानको निमित्त मानने में कोई हानि नहीं है । दिव्यध्यतिका खिरमा केवलो जिनके वचनयोग क्रियाको निमित कर होता है और वचनयोग वचनवर्गणाओंके अवलंबन पर निर्भर है। ऐसा केवलो जिनके साथ दिव्यध्वनिका निमित्त-नैमित्तिक