Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर (खानिया ) तत्त्व चाचा
जिस प्रकार क्षीरसागरका जल घटमें भर लिया जाता है उसी प्रकार ये ग्रन्थ भी अर्थरूपसे थे ही हैं, इसलिये प्रमाण हैं ।
मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमी गणो । मङ्गलं कुन्दकुन्दाय जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम् ॥
शंका ८
मूल प्रश्न ८ - दिव्यध्वनिका केवलज्ञान अथवा केवलीकी आत्मासे कोई सम्बन्ध है या नहीं? यदि हैं तो कौन सम्बन्ध है ? वह सत्यार्थ है या असत्यार्थ ? दिव्यध्वनि प्रामाणिक है या अप्रामाणिक ? यदि प्रामाणिक हैं तो उसकी प्रामाणिकता स्वाश्रित है या केवली भग बान्की आत्मा के सम्बन्धसे ?
प्रतिशंका ३ का समाधान
इस मूल प्रश्नका गम और आपको अनुसरण करनेवाली कि पिछले दो उत्तरों में सांगोपांग विचार कर आये हैं। साथ ही प्रतिशंका २ में निर्दिष्ट तथ्यों पर भी विस्तार के साथ प्रकाश डाल आये हैं | हमने अपने पिछले उत्तरोंमें मूल प्रश्नको लक्ष्य में रखकर जो कुछ लिखा है उसका सार यह है-(१) केवली जिनकी दिव्यध्वनि निश्चयसे स्वाश्रित प्रमाणरूप है, व्यवहार से पराश्रित प्रमाणरूप कही
गई हूँ ।
(२) दिव्यध्वनि के प्रवर्तनमें वचनयोग तथा तीर्थंकर प्रकृतिके उदय आदि निमित्त हैं, इस अपेक्षासे केवली जिनके साथ भी दिव्यष्यनिका निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध बन जाता है ।
( ३ ) यतः दो द्रव्योंकी विवक्षित पर्यायोंमें कर्ता-कर्मसम्बन्ध असद्भूत व्यवहारनयको अपेक्षा ही घटित होता है, इसलिए वह परमार्थ सत्य न होकर व्यवहारसे सत्य माना गया है। उपचरित सत्य इसीका दूसरा नाम है ।
इस स्पष्टीकरणसे मूल प्रश्न के पांचों उपप्रश्नोंका समाधान हो जाता है। साथ ही आगममें कौन बचन किस नयको दृष्टि में रखकर लिखा गया है यह भी सम्यक् प्रकार ज्ञात हो जाता है। फिर भी अपर पक्ष पर द्रव्यकी किसी भी विवक्षित पर्याय में निमित्तको अपेक्षा किये गये कर्तृत्व व्यवहारको परमार्थभूत मानने के कारण न तो स्थाश्रित प्रमाणताको स्वीकार करता है, न निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धको उपचरित मान्ना चाहता है और न ही कार्यके प्रति उपाचनकी अन्तर्व्याप्ति के साथ निमितोंको बाह्य व्याप्ति के सुभेलको स्वीकार करना चाहता है । उस पक्षका यदि कोई आग्रह प्रतीत होता है तो एक मात्र यही कि जिस किसी प्रकार कार्य के प्रति निमित्तों में परमार्थभूत कर्तृत्व सिद्ध होना चाहिये। इसके लिए यदि आगमसम्मत उपादानके स्वरूप में फेरफार करना पड़े तो वह अपने तर्कोंके बल पर उसे भी करने के लिए तैयार है। इसमें वह आगमकी हानि नहीं मानता। यही कारण है कि उस पक्ष की ओरसे प्रतिशंका ३ में पुनः उन्हीं ५ प्रश्नोंको उपस्थित कर प्रतिशंका २ में निर्दिष्ट की पुष्टि करनेका प्रयत्न किया गया है। अतः हम प्रतिशंका २ और ३ को लक्ष्य में रहकर उन्हीं बातोंपर नये सिरेसे आगमप्रमाणके अनुसार प्रकाश डालने का पुनः प्रयत्न करेंगे।