Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा
समाधान यह है कि एकान्त पुरुषार्थबादके निरसन के लिए आचार्यने उसे प्रमाणरूपमें उपस्थित किया है इसमें सन्देह नहीं । किन्तु वे मात्र उसे लोकोक्ति मानते रहे इस बातका उनके समग्र कथनसे समर्थन नहीं होता। उन्होंने तो उसे भाग्य रखा हो। 'इति प्रसिखे' लिखकर आचार्य विद्यानन्दमे भी उसकी प्रामा निकतापर अपनी मुहर लगा दी। यह प्राचीन किसी जैनाचार्यका हो वचन है, लोकोक्ति नहीं यह उसकी रचना ही सिद्ध होता है। कार्यका नियामक उपादान ही होता है, बाह्य सामग्री नहीं ऐसा स्वामी समन्व भद्रका भी अभिप्राय है। यह केन्द्र है। उसके आधारपर कार्य कारणभावका पूरा चक्र घूमता है ।
उक्त श्लोक मुद्धि व्यवसायादिकी उत्पत्ति विवक्षित भवितयतासे होती है यह नहीं कहा है, बल्कि यह कहा है कि जैसी भवितव्यता होती है वैसी बृद्धि हो जाती हैं, पुरुषार्थ भी उसीके अनुकूल होता हूँ और बाह्य साधनसामग्री भी उसी अनुकूल मिलती है। अपर पक्षको उक्त श्लोक में प्रयुक्त हुए शब्दोंको ध्यान में रखकर ही उसकी व्याख्या करनी चाहिये। अपनी इच्छानुसार कुछ भी अर्थ करके उसे उक्त शोकका अर्थ बतलाना यह विद्वत्सम्मत मार्ग नहीं कहा जा सकता। प्रतिनियत कार्यको भविता एक यस्तु है और उसके साथ उम्र कार्यकी अन्य साधन सामग्री दूसरी वस्तु है । सब अपने अपने प्रतिनियत कारणोंसे उत्पन होकर भी उनका प्रतिनियत भवितव्यता के साथ ऐसा सहज योग बनता है जिससे प्रत्येक समय में प्रतिनियत कार्यकी उत्पति ही हुआ करती है यही उक्त श्लोका आशय है।
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समर्थ उपादान प्रतिनियत कार्यको अपेक्षा प्रतिनियत पर्याययुक्त द्रव्य है। यह स्वयं क बनकर तन्मय होकर परिणमता है का सामग्रीका व्यापार उससे सर्वथा मित्र अपने में ही हुआ करता है, इसलिए निश्चययसे हमारा यह लिखना सर्वथा उचित ही है कि 'कार्य केवल भवितव्यता (समर्थ उपादान) से ही न हो जाया करते है, निमित्त उदम अकांचरकर ही रहा करते है' जैसे उक्त श्लोक भवितव्यता के साथ बुद्धि आदि अन्य साधन सामग्रोकी सूचना देता है वैसे हमारे द्वारा उल्लिखित उक्त वाक्य भी अन्य साधनसामग्रीको सूचना स्पष्टतः दे रहा है। पूरे वापर दृष्टिपात कीजिए। भवितव्यताके सिवाय अन्य सामग्रीमें व्यवहारसे मिमितता स्वीकार करके दी वह वाक्य लिखा गया है। जैसे वह इलोक अन्य वाह्य सामग्री में व्यवहारसे कारणताका निषेध नहीं करता, वैसे हम भी नहीं कर रहे हैं। हमारा और उक्त श्लोकका आशय एक ही है।
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अपर पक्षने भवितत्रता अनुसार सब साधन सामग्री मिलती हैं इसकी बड़ी कड़ी आलोचना की है। उसे इस बाउसे बड़ा सन्ताप है कि उक्त रोक्ने अन्य समस्त साधन सामग्रीको भवितव्यको दयापर छोड़ दिया है। किन्तु अपर पक्षको ध्यान रखना चाहिए कि वस्तुवस्था हो ऐसी है, इसमें न उनस श्लोकका दोष है और न उसके रचयिताका ही विवक्षित समयमे यदि किसी की बुद्धि पड़ने की होती है तो प्रश्न होता है कि उसी समय देसी बुद्धि क्यों हुई ? अपर पक्ष कहेगा कि हा अभ्यन्तर सामग्री के कारण। उसपर पुनः प्रश्न होता है कि उसी समय ऐसी वाह्याभ्यन्तर सामग्री क्यों मिलो ? अपर पक्ष कहेगा कि प्रयत्न करनेसे | इसपर पुन: प्रश्न होता है कि उसका सा प्रयत्न बाह्यान्तर सामग्री के अनुसार हुआ या इसके बिना हो गया ? इसपर अपर पक्ष यही तो कहेगा कि उस समय सा प्रयत्न स्वयं नहीं हो गया किन्तु बाह्या स्यन्तर सामग्री के अनुसार हुआ। इसपर प्रश्न होता है कि उस बाह्याभ्यन्तर सामग्री में विवक्षित कार्यकी तथा अन्य साधन सामग्री के वैसे परिणमनेकी भवितव्यता सम्मिलित है या नहीं ? अपर पक्ष इसका निषेध तो कर नहीं सकता। इसपर अपर पक्ष कहेगा कि विदाका अर्थ प्रत्यासत्ति है और वह अनेक योग्यतावाली होती है, इसलिए कौन योग्यता कार्यरूप परिणमे यह अन्य साधनसामग्रीपर अवलम्बित है । इसपर