Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा
ज्ञान याकार परिणमता है ऐसा जब हम मानते ही नहीं तत्र सम्भावनामें उसकी चरचा करना ही व्यर्थ है। फिर भी ज्ञान परिणामको समझाने के लिए ज्ञानको साकार कहा ही जाता है-साकारं ज्ञानम् । किन्तु समझदार उसका वही आशय लेता है जो अभिप्रेत होता है। इसका कोई भी समझदार यह आशय नहीं लेता कि ज्ञयको जानते ममय ज्ञान घटाकार हो जाता है। तत्पत्ति, तदाकार और तदध्यवसाय ज्ञान होता है यह सिद्धान्त बौदोंका है, जैनोंका नहीं। जब अगर पक्ष सर्वज्ञताको परमापेक्ष यथार्थ मानता है तब अवश्य ही यह शंका होती है कि क्या यह पक्ष शेयोंसे ज्ञानको उत्पत्ति मानना चाहता है जिसका कि आचार्योने दर्शनशास्त्र के ग्रन्थों में दृढ़तासे खण्डन किया है।
अपर पक्षने पदार्थके तीन भेदों में से 'घट' शब्द और 'घटज्ञान' इन दोनों को पराधिन माना है जो ठीक नहीं, क्योंकि घट शब्दरूप परिणत शब्दवर्गणाएं घट शब्दप स्वरूपसे है. पट पदार्थके कारण नहीं। इन दोनों में प्राध्य-वाचक व्यवहार अवश्य ही परस्पर सापेक्ष होता है। इसी प्रकार ज्ञानका घटज्ञानरूप परिणाम स्वतःसिद्ध है, घटपदार्थके कारण ज्ञानका वैसा परिणाम नहीं हुआ है। हाँ, घटज्ञान और घट में ज्ञाप्यज्ञापकन्यवहार अवश्य ही परस्पर मापेक्ष है। अपर पक्षका कहना है कि""घटशब्द या घटज्ञान में जलधारण नहीं हो सकता।..."अतः शब्द व ज्ञानको पदार्थ व्यवहारसे कहा गया है। समाधान यह है कि घट शब्द और घटज्ञानको स्वतन्त्र सत्ता है या नहीं? यदि अपर गक्ष कहे कि उनकी स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है तो फिर उन्हें आकाशकुसुमके समान असत्स्वरूपही मानना पड़ेगा 1 अपर पक्ष उन्हें आकाशकुसुमके समान असत्त्वरूप तो मानेगा ही नहीं, इसलिए वह कहेगा कि उनकी ऐसे ही स्वतन्त्र सत्ता है जैसे घट पदार्थकी तो फिर उन्हें घटपदार्थके समान परमार्थस्वरूप मान लेने में अपर पक्षको कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यदि वे घटपदार्थका कार्य नहीं कर सकते तो न कर सकें, उनका जो भी कार्य है उसे तो वे करते ही है। इसलिए वे घटपदार्थके समान परमार्थस्वरूप हो है ऐरा। यहाँ समझना चाहिए। अन्यया घटपदार्थको भी घटशब्द और घटज्ञानका कार्य न कर सकने के कारण म्यवहारसे पदार्थ स्वीकार करना पड़ेगा और इस प्रकार कोई भी पदार्थ परमार्थस्वरूप नहीं सिद्ध होगा। किन्तु यह ठीक नहीं, इसलिए लोकमें जितने भी पदार्थ है वे सभी के सभी स्वरूपसे परमार्थस्वरूप है ऐसा समझना चाहिए ।
८. हमने जो यह लिखा है कि 'स्वरूपसे सर्वज्ञता घटित हो जाने पर जिस समय ममस्त ज्ञयों की अपेक्षा उन्हें सर्वज्ञ कहा जाता है तब उनमें यह सर्वज्ञता परकी अपेक्षा आरोपित को जाने के कारण उगनरित सतव्यवहारसे सर्वशता कहलाती है। इसका आशय यह है कि स्वरूपसे सर्वज्ञ है, क्योंकि राकल पदार्थ साक्षात्करणरूपसे परिणमना यह केवलीका स्वरूप है। किन्तु व्यवहार पराचित होता है, इस वचनके अनुसार जब इस सर्वज्ञताको झयोंकी अपेक्षा कहा जाता है तब यह कथन व्यवहार हो जाता है ! केवलोका जो स्वरूप है यह परकी अपेक्षा कहा गया यही कथन उपवहार है, सर्वज्ञता स्वयं व्यवहार नहीं है। परको अपेक्षा लगाकर कथन करना व्यवहार है ।ज्ञेय स्वरूपसे ज्ञच है, ज्ञायक स्वरूपसे ज्ञायक है। मात्र इनका व्यवहार परस्पर सापेक्ष है, इसलिए ज्ञ यज्ञायक सम्बन्ध व्यवहारसे कहा गया है। परमार्थसे इनमें कोई सम्बन्ध नहीं है। अपर पक्षने समयसार गाथा ३६१ की टीकाका जो सद्धरण दिया है उसीसे व्यवहार क्या है यह स्पष्ट हो जाता है । अगर पक्ष सर्वशताको ही व्यवहारनयरो कहना चाहता है जो केवली जिनका स्वरूप है और यथार्थ है । जब कि परकी अपेक्षा लगा कर उसका कथन करना यह व्यवहार है। उक्त टीकामें यहो मात्र व्यक्त किया गया है। अपर पशने जो पालापपद्धतिका उद्धरण दिया है उसमें परज्ञता और परवशिताको स्वाभाविक उपञ्चरित बतलाया है। इसका अर्थ यही हुआ कि समंज्ञसा और सर्व