Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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भणी
शंका ८ और उसका समाधान हमारे गुरुपर्यन्त उनकर प्रसादरूपसे दिया गया जो शुद्धात्मतत्वका अनुग्रहपूर्वक उपदेश तथा पूर्वाचार्योके अनुसार उपदेश उससे जिस विभवका जन्म है, निरन्तर क्षरता आस्वादमें भाया और सुन्दर जो भानन्द उससे मिला हुभा जो प्रचुरसंवेदनस्वरूप स्वसंवेदन उस कर जिसका जन्म है ऐसा जिस तिस प्रकारसे मेरे शानका विभव है उस समस्त विभवसे दिखलाता हूँ । इस प्रकार के जानके द्वारा श्री कुन्दकुन्द भगवानने इस समयसार ग्रन्धकी रचना की है, इसीलिये वह समयसार ग्रन्थ पाब्दब्रह्म है, इसीलिये यह समयसार ग्रन्थ प्रामाणिक है। अक्षरों, शब्दों या वाक्योंके स्वयं मिल जानेसे यदि इस ग्रन्थको रचना हई होती तो या मात्र काययोगसे (जो कि विचारो पर्याय है) ज्ञान बिना इस समयसार ग्रन्थको रचना हुई होती तो यह ग्रन्थ प्रमाणकोटिको प्राप्त न होता, इसीलिये अर्थात प्रत्यको प्रमाणता सिद्ध करने के लिये श्री अमृतचन्द्राचायने टोकामें स्पष्ट कर दिया कि इस ग्रन्थको रचना श्री कुन्दकुन्द भगवान् ने अपने ज्ञान के द्वारा को है।
श्री कुन्दकुन्द भगवान ने भी प्रथम गाथा में यह स्पष्ट कर दिया कि मैं अपनी तरफसे कुछ नहीं कहता । किन्तु में भी वह हो कहूँगा जो केवली या खुलवेवलीने कहा है।
इसी प्रकार गाथा ४१,४६, ५० आदि गाथाओं में भी जिणा विति, बांग्णदो जिणव खल सम्बदरसीहि' इत्यादि पदोंके द्वारा यह बतलाया गया है कि वह जो कुछ भी मैं (कुन्दकुन्द आचार्य ) कह रहा हूँ वह जिनेन्द्र भगवान ने कहा है।
इसी प्रकार प्रवचनसार गाथा ४२, ८६,८७, ८८, आदि तथा अन्य ग्रन्थोंमें भी कहा है।
फिर इस कथनके विरुद्ध अर्थात श्री कुन्दकुन्द आचादके ( मैं समग्रसारको कहता हूँ। कंवल श्रुतकेवली ने कहा है, जिनेन्द्र ने कहा है।) इन घाश्यों के विरुद्ध तथा अपने (प्रथम गाथाको टीका में 'परि. भाषण करूगा' तथा गाधा पांवको टीकाम 'ज्ञानविभवसे दिखलाता है।) इन वाक्यों के विरुद्ध टोकाक अन्त में यह कैसे लिखते कि इस ग्रन्थ या रीकाको स्वयं रचना हो गई।
समयसार गाथा ४११ को टोकामें इस समयसारकी महिमा बतलाने के लिये तथा पदार्थ और शब्दका वाच्य-वाचकसम्बन्ध दिखलाने के लिये यह लिखा है-'कैसा यह शास्त्र ? समयसारभूत भगवान् परमात्माके प्रकाशनेवाला होनेसे जिसको विश्व-समय कहते हैं उसके प्रकाशसे आप स्वयं शब्दया सरीखा है।' -समयसार रायचन्द ग्रंथमाला पृ०५४१ ।
कलश २७८ में मात्र अपनी निरभिमानता दिखलाने के लिये यह कहा है कि 'इस टीकामें मेरा कुछ भी कर्तव्य नहीं है।' श्री पं० जयचन्दजीने भी इस कलश २१८ के भावार्थ में कहा-'ऐसा कहनेसे उद्घृतपनेका त्याग पाता है। इन सब उल्लेखोंको देखते हए हम इरा निवर्ष पर पहुँचे है
जब हम जैन सिद्धान्तसम्मत पद और वाक्यके लक्षणोंको देखते हैं तो पुरुषप्रयत्नके बिना वे बनते ही नहीं है तब अमृतवन्द सूरि महाराजके गम्भीर और सुललित पद वापय भी उनके ज्ञान प्रकर्षके बिना कैसे बन सकते हैं जिनसे कि परम ब्रह्म-तत्व प्रतिपादक इस अध्यात्मशास्त्रकी रचना हुई है। अत: उनका वह उल्लेख मात्र अपना लाघव बतलाने के लिये है।
भी अमृतचन्द्र आचार्य स्वयं कलश ३ में कहते हैं कि जो इस समयसारकी व्याख्या ( कथनी ) से मेरी अनुभूति-अनुभवनरूप परिणति उसकी परम विशुद्धि समस्त रागादि विभाव परिणति रहित उस्कृष्ट निर्मलता हो। यह मेरी परिणति ऐसी है कि परपरिणतिका कारण जो मोह नाम कर्म उसका अनुभाव उदयरूप विपाक उससे जो अनुभाव्य-रागादिक परिणामों की व्याप्त है उस कर निरंतर करूमाषित मैली