Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका ८ और उसका समाधान
शंका ८
मूल प्रश्न- दिव्यध्वनिका केवलज्ञान अथवा केवळीकी आत्मा से कोई सम्बन्ध है या नहीं ? यदि है तो कौन सम्बन्ध है ? वह सत्यार्थ है या असत्यार्थ ? दिव्यध्वनि प्रामाणिक है या अप्रामाणिक ? यदि प्रामाणिक है तो उसकी प्रामाणिकता स्वाश्रित हैं या केवली भगवान्की आत्मा के सम्बन्ध से ?
प्रतिशंका २ का समाधान
इसके उत्तरस्वरूप बाचागंश्रयं कुन्दकुन्द और अमृतचन्द्रसूरि आगमप्रमाण देकर मोमांसा को गई थी । साथ ही उस आधारसे यह बतलाया गया था कि उनकी दिव्यध्वनि स्वाभाविक होती है। प्रवचनसारकी ४४ नं० की गाथामें 'दियो' शब्द आया है, उसका अर्थ आचार्य अमृतचन्द्रने 'स्वाभाविक' किया है। आचार्य कुन्दकुन्दने तो स्त्रियोंकी माया के समान उसे स्वाभाविकी बतलाया है। साथ ही अमृतचन्द्रसूरिने अपनी टोका मेघा दृष्टान्त देकर यहां 'स्वाभाविक' पदया है। लोक में पुरुष प्रयत्न के बिना अन्य जितने कार्य होते हैं उनको जिनागममें 'विस्रसा' कार्य स्वीकार किया गया है । - देखो समयसार गाथा ४०६, सर्वार्थसिद्धि अ० ५ सू० २४ ।
यह तो सुविदित सत्य है कि केवली भगवान्के राग द्वेष और मोहका सर्वथा अभाव हो जाने के कारण गरम वीतराग निश्चयचारित्र प्रगट हुआ है । इसलिये इच्छा के अभाव में प्रयत्नके बिना हो उनके धर्मोपदेश आदिकक्रिया होती है। इतना स्पष्टीकरण करनेके बाद भी इस सम्बन्ध में मूल प्रश्नके खण्ड पाड़कर पुनः विशेष जानने की जिज्ञासा को गई है। प्रतिशंका के अनुसार उक्त प्रश्नके विभाग इस प्रकार हैं
१. दिव्यध्वनिका केवलज्ञान अथवा केवलो आत्मा के साथ कोई सम्बन्ध है या नहीं ?
२. दिव्यध्वनिका केवलज्ञान अथवा केवली आत्मा के साथ कौन सम्बन्ध है ?
२. दिव्यध्वनिका केवलज्ञान अथवा केवली के साथ सम्बन्ध सत्यार्थ है या असत्यार्थ ?
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४. दिव्यध्वनि प्रामाणिक है या अप्रामाणिक ?
५. दिव्यश्वनि प्रामाणिक है तो उसकी प्रामाणिकता स्वाश्रित है मा केवली भगवान्की आत्माके
सम्बन्धसे ?
यहाँ इन शंकाओं का समाधान करने के पूर्व प्रकृत में उपयोगी कतिपय आवश्यक सिद्धान्तों का प्रतिपादन कर देना आवश्यक प्रतीत होता है ।
(अ) आत्मा व्याप्यव्यापक भाव से तन्मयताका प्रसंग आनेके कारण पर द्रव्योंको पर्यायोंका कर्ता
नहीं है ।
( आ ) सामान्य आत्मा निमित्त नैमित्तिकभावसे परद्रव्यों की पर्यायोंका कर्ता नहीं है। अन्यथा नित्य निमित्त कर्तृत्वका प्रसंग आता है ।
(इ) अज्ञानी जीवके योग और उपयोग ( रागभाव ) पर द्रव्यों की पर्यायोंके निमित्तकर्ता हैं ।
(ई) आत्मा अज्ञानभावसे योग और उपयोगका कर्ता है। तथापि पर हयोंको पर्यायोंका कर्ता
कदाचित् भी नहीं है ।
( उ ) आत्मा शानभावसे परद्रव्योंकी पर्यायोंका निमित्तकर्ता भी नहीं है ।