Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका ६ और उसका समाधान यहाँ जो प्रागभावका लक्षण किया है वही समर्थ उपादानका भी लक्षण है । इसी तथ्पको स्पष्ट करते हुए वहीं पृ० १०० में लिखा है
ऋजुसूत्रनयार्पणाद्धि प्रागभानस्तावत्कार्यस्थोपादानपरिणाम एवं पूर्वोऽनन्तरात्मा । न च तस्मिन् पूर्वानादिपरिणामसन्ततो कायसद्भावप्रसंगः , प्रागभावविनाशस्य कार्यरूपतोपगमात् ।
ऋजुत्र नयकी अपेक्षा तो पूर्व अनन्तररूप कार्यका उपादान-परिणाम ही प्रागभाव है। और उसके ऐसा होने पर पर्व अनादि परिणाम सन्तति में कार के मद्धानका प्रसंग हो जायगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि प्रागभावका विनाश ही कार्यहप स्वीकार किया है।
यह आगम वनन है जो स्वाचित कयन होनसे यथार्थ पदवोको प्राप्त है। अपर पक्षने जो उद्धरण उपस्थित किया है वह पराश्रित कथन होनेसे व्यवहार पदवी को प्राप्त है। इन दोनों कथनोंको एक साथ मिलाकर अवलोकन करने पर अपने आप यह फलित हो जाता है कि निश्चय-समर्थ उपादानके कालमें ही उसका व्यवहार हेतु हुआ करता है। इन दोनों के प्रत्येक समय में होने का ऐया सहज योग हुआ करता है । जहाँ यह सहज योग प्रायोगिक होला है वहाँ मात्र यह प्राणो ऐसा विकल्प करता है कि मैंने इन साधनोंको जुटाया। कहो उसके विचारको अपार्थता है। यदि वह इसका त्याग कर दे तो उसे ऐसा भाम होने में देर न लगे कि अपने परिणामस्वभाव के कारण इनका यह परिणाम हुआ है, मैं तो उसमें निमित्तमात्र हूँ।
अपर पक्षन इसी आगमके १० २०० का 'सस्मादयं' इत्यादि उद्धरण उपस्थित किया है। उसमें बिनासका हेतु अकिचित्कर है इस बातका निषेध किया गया है। यह तो अवलोकन करनेसे ही विदित हो जाता है कि यह प्रकरण बौद्ध दर्शनके "विनाश नितुक होता है' इस एकान्त मतका खण्डन करनेके अभिप्रायसे लिखा गया है। उसका कहना है कि प्रत्येक क्षण विनश्वरवील होनेसे स्वयं नष्ट हो जाता है, इसलिए उसे सहेतुक मानना उचित नहीं है। किन्तु उसका उत्पाद स्वयं नहीं होता, उसकी उत्पत्ति कारणान्तरोंसे होती है। इसके लिए उरा दर्शनने चार प्रत्यय ( कारण) स्वीकार किये है--समनन्तर प्रत्यय जो उत्तर क्षणको उत्पत्तिके कालमें असत्त है, इसलिए बह दर्शन असत् से सत्की उत्पत्ति मानता है। किन्तु पूर्व क्षणके विनाश होवे पर उत्तर क्षणको निपमसे उतात्ति होती है, इसलिए उस दर्शनने उसे कारण रूप से स्वीकार किया है। इगसे यह तो स्पष्ट हो गया कि उस दर्शनमें वस्तुतः उपादानरूप कोई पदार्य नहीं है । फिर प्रत्येक क्षणका उत्पाद होता कैसे है? जैसे प्रत्येक क्षणका विनाश होना उराका स्वभाव है थैम उत्पाद होना उसका स्वभान तो है नहीं, अतः जमकी उत्पत्ति सहेतुक होनी चाहिए। यही कारण है कि उस दर्शनने समनन्तर प्रत्ययके समान उत्लादके अन्य तीन कारण और स्वीकार किये हैं। वे है-आलम्बनप्रत्यय, महतारोप्रत्यय और अधिपतिप्रत्यय । इस आधार पर उस दर्शनका कहना है कि जैसे उत्पाद सहेतुक होला है वैसे विनाश सहेतुक नहीं होता । अपने इस अभिप्रायको स्पष्ट करते हुए वह कहता है कि हेतु ( मुद्गरादिके व्यापार ) से कारण क्षण ( रामनन्तर प्रत्यय )का बुछ नहीं होता, वह स्वयं ही नष्ट होता है । इस पर आचार्यका कहना है कि कारणसे कार्गका भी कुछ नहीं होता, वह भी स्वयं ही उत्पन्न होता है ऐसा स्वीकार कर लेना चाहिए और ऐलो अवस्था में जैसे आT (बौद्ध) विनाशको निहतुक मानते हो उसी प्रकार उत्पादको भी नितुक स्वीकार कर लेना चाहिए । यतः बौद्धदर्शन उत्पादको निर्हेतुक मानने के लिये तैयार नहीं, इसलिए इस परसे आचार्यने उसे यह स्वीकार करने के लिये बाध्य किया है कि 'तस्मादयं विनाशहेतुर्भाचमभावीकरोतीप्ति म पुनरकिंचित्करः।-इसलिए यह विनाशका हेतु भावको अभावरूप करता है तो यह अकिचित्कर कैसे हो सकता है?