Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शका ७ और उसका समाधान अर्थ- केवलज्ञान आत्मा और पदार्थ (ज्ञेय) से अतिरिक्त किसी इन्द्रियादिकको सहायताको अपेक्षा नहीं रखता है, इसलिये वह केवल-असहाय है । अर्थात् केवलज्ञान आत्मा और पदार्धको अपेक्षा रखता है।
___इस तरह चुकि सर्वज्ञतामे पदार्थविषयताको अपेक्षा है, अतः वह पराश्रित होनेसे व्यवहारनयसे है । इसी कारण प्रवचनसार में श्री कुन्दकुन्द भगवान्ने कहा-'णाणं गेयपमाणनुदिष्ट' अर्थात् ज्ञान ज्ञेयप्रमाण कहा गया है। यद्यपि निश्चयसे उसमें अनन्तानन्त लोकालोकको जानने की शक्ति है । (राजबार्तिक १ । २६) अर्थात् ऐसे अनतानत लोकालो रु है तो उन्हें भो जान सकता है, किन्तु सर्वज्ञताको अपेक्षा व्यवहारनयको दृष्टिमें वह ज्ञान, ज्ञेय प्रमाण है।
५-समयसार परिशिष्य आत्माकी ४८ शक्तियोंका कथन है। उनमें से कुछ शक्तियां गोधित भी हैं । जैसे परको अपेक्षा रखनेवाली अकार्यकारणत्व शक्लि अकातत्व शक्ति, क्योंकि, अन्यसे न करने योग्य और अन्यका कारण नहीं एसी अकार्यकारण दाक्ति है और जातापने मात्रसे भिन्न परिणामके करनेका अभावस्वरूप अकतत्व नामकी शरति है । इसी प्रकार सर्व पर शेयोंकी अपेक्षा रखने वालो सर्वदशिख सर्वज्ञत्व मामको शक्तियां हैं। सर्वशित्व और सर्वज्ञत्व में जो 'सर्व शब्द है वह स्वयं ही सर्व पर पदार्थों की अपेक्षाका द्योतक है।
___ श्री कुन्दकृन्द भगवान ने समयसारमें स्वभावये सर्वज्ञता मानते हुए भी सर्वज्ञताको व्यवहार नयका ही विषय कहा है
जह सेडिया तु ण परस्स संडिया सेडिया य सा होइ । तह जाणी दुपा परस्स जाणी जाणी सो दु ॥३५६॥ एवं तु णिच्छयणयस्स भासियं पाण-दसण-चरिते । सुणु ववहारमयस्स य बतन्वं से समासेण ।।३६०॥ जह परदवं सेडिदि हु सेडिया अपणो सहावेण । तह परदब्वं जाण णाया वि सएण भावेण ॥३६१।।
एवं ववहारस्स दु विणिरओ णाणा-दंसण-चरिते ॥३६५।। अर्थ--जैसे सेटिका (कलो, खड़िया मिट्टी ) तो परकी नहीं है, सेटिका तो स्वयं सेटिका है, उसी प्रकार आत्मा पर द्रव्यका ज्ञायक नहीं है, जायक तो शायक ही है। इस प्रकार ज्ञान दर्शन चारित्रमें निश्चयनयका कथन है। संक्षेपो व्यवहारनपका कथन सुनो। जैसे सेटिका अपने स्वभावसे परद्रब्य दीवाल
आदिको सफेद करती है, उसी प्रकार ज्ञाता भी अपने स्वभावसे परद्रमको जानता है। इस प्रकार ज्ञान दर्शन चारित्रके विषय में व्यवहारनयका निर्णय कहा ।
गाथाको व्याख्या में श्री अमृत चन्द्र सूरिने स्पष्ट लिखा हैतथा तेन श्वेतमृत्तिकादृष्टान्तेन परदम्य घटादिक ज्ञ य वस्तु व्यवहारेण जानाति । अर्थ-डिमाके दृष्टान्तसे आत्मा पर द्रव्य घट आदि शेग वस्तुको व्यवहारनयसे जानता है ।
'स्वभावसे पर द्रव्यको जानना भी व्यवहार नयका विषय हूं' ऐसा श्री कुन्दकुन्द भगवान्ने उपर्युक्त गाथाओं में तथा नियमसार गाथा १५९में स्पष्ट कहा है। भगवान् कुन्दकुन्दके वाक्योंका विरोध करते हुए आप सर्वज्ञताको विश्चयनयसे कहनेका क्यों प्रयल कर रहे हैं? क्या आप ऐसा इसलिये कहते हैं कि