Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
View full book text
________________
शंका ७ और उसका समाधान
५०७
प्रतिबिम्ब ज्यों का ज्वों पड़ता है उसी प्रकार ज्ञान जेयोंको ज्योंका त्यों यथार्थ जानता है। इस जाननेका नाम ही ज्ञयाकार परिणति है। यदि यह मान लिया जावे कि ज्ञान में ज्ञेयोंके प्रतिबिम्ब पड़ने पर ही ज्ञान ज्ञेयों को जानता है तो ज्ञान रस गन्ध, स्पर्शको तथा अमूर्तिक पदार्थोको नहीं जान सकेगा, क्योंकि इनका प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता है और नशान रसादिर परिणम सकता है। प्रतिबिम्ब या छाया ता पुद्गल द्रन्यकी पर्याय है, जानकी नहीं। अत: अमितगति सामायिकपाठ तथा प्रवचनसार गाथा २०० की टोकासे भी यह सिद्ध नहीं होता कि केवली जिन निश्चयनयको अपेक्षा सर्वज्ञ हैं।
आपने पदार्थ तीन प्रकारके लिखे- शब्दरूप २ अर्थरूप ३ शानरूप। इनमेंसे शब्दरूप पदार्थ 'घट' शब्द, और ज्ञानरूप पदार्थ जैसे घटको जाननाहा घटज्ञान, ये दोनों पदार्थ पराश्रित होनेसे व्यवहारके विषय है। जैसे घटमें जलयारण हो सकता है वैसे घट शब्द या घटज्ञानमें जलधारण नहीं हो सकता । अन्न से पेट भर सकता है-भूख मिट सकती है, किन्तु अन्न शब्दसे या अनके शानमात्रसे पेट नहीं भर सकता, अतः शब्द व ज्ञानको पदार्थ व्यवहारसे कहा गया है।
८-आपने कहा है 'स्वरूपसे सर्वज्ञता घटित हो जानेपर जिस समय समस्त ज्ञेयोंकी अपेक्षा उन्हें सर्वज्ञ कहा जाता है तब उन में यह सर्वशता परको अपेक्षा आरोपितको जाने के कारण उपचरित सद्भुत व्यवहारसे सर्वज्ञता कहलाती है।'
यहाँ विचारणीय बात यह है कि जब केवली जिन सर्वज्ञ हैं तो उनमें वही धर्म मारोपित नहीं हो सकता, अतः आपका उपर्युक्त कथन आपके द्वारा ही बाधित ही रहा है। फिर स्वरूपसे सर्वज्ञता घटिल भो नहीं होती, आत्मस्ता ही घटित होती है। परपदार्थो और ज्ञान में परस्पर ज्ञेयज्ञायक सम्बन्ध है । यद्यपि ज्ञान शेगों को अपने स्वभावसे जानता है तथापि ज्ञेयोंके साथ जायकका सम्बन्ध व्यवहारनयसे हो है। समयसार पृष्ठ ४४८ पर गाथा ३६१ को टोकामें श्री अमृनचन्द्र आचार्यने कहा भी है
चेतयितापि ज्ञानगुणनिर्भरस्वभाषः स्वयं पुद्गलादिपरद्र व्यस्वभावेनापरिणममानः पुद्गलादिपरत व्यं वात्मस्वभावेनापरिणमयन् पुदगलादिपरदन्यनिमिसकनात्मनो ज्ञानगुणनिमरस्वभावस्य परिणामेनीस्पद्यमानः पुद्गलादिपरवम्यं चेतयितृनिमिचकनात्मनः स्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः स्वभावेन जानातीति व्यवाहियते ।
अर्थ—सानगुणसे परिपूर्ण स्वभावाला चेतयिता भी स्वयं पुद्गलादि पर द्रव्यके स्वभावरूप परिणमित न होता हुआ और पुद्गलादि परद्रव्योंको अपने स्वभावरूप परिणमित न करता हुआ पुद्गलादि परष्ट्रष्य जिसमें निमित्त है ऐसे अपने शानगणसे परिपूर्ण स्वभावके द्वारा उत्पन्न होते हए पदयलादि पर द्रव्योंको अपने स्वभाबसे जानता है ऐसा व्यवहार किया जाता है।
मालापपद्धतिमें श्री देवसेनाचार्यने कहा
स्वभावस्याप्यन्यत्रोपचाराचुपचरितस्वभावः । स वैधा-कर्मज-स्वाभाविकभेदात् | यथा जीवस्य भूतत्वमचेतनवं यथा सिद्धानां परज्ञता परदर्शकत्वं ।।
अर्थ · स्वभावका अन्यत्र उपचार सो उपचरित स्वभाव है। वह उपपरित स्वभाव, कर्मजनित और स्वभाविकके भेदसे दो प्रकारका है, जैसे जीवके मूर्तफ्ना तथा अचेतनपना स्वभाव है, यह कर्मजनित उपररित है। और सिहोंके परको जानना (सर्वज्ञता) और परको देखना (मर्वदर्शिता) यह स्वाभाविक उपचरित है।
इस प्रकार श्री देवसेनाचार्यने भी सर्वज्ञताको उपचरितनयसे ही असलाया है। पदि उपचरितनयको