Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर ( खानिया) तत्त्वचर्चा
अतएवं अपर पक्षका न तो 'स्वप्रकाशकको अपेक्षासे आस्मज्ञ और परप्रकाशक को अपेक्षा सर्वज्ञ है। यही कहना आगमानकल है और न 'सर्वज्ञ शब्द स्वयं परसापेसका द्योतक है परनिरपेक्षका द्योतक नहीं है।' इत्यादि लिखना ही आगमानुकूल है ।
हमारा यह लिखना यथार्थ क्यों है इसके लिए आप्तमीमांसा कारिका ७३ और ७५ पर तथा उनको अष्टसहस्री टोकापर दृष्टिपात कीजिए।
२. अपर पक्षने अपने दूसरे मुद्दे में भी अपने प्रथम मुद्देके कथनको ही दुहराया है कोई नई बात नहीं है। अपर पक्षका कहना है कि 'उस क्षायिक ज्ञानमै निश्चयनयसे बात्मज्ञ नामका धर्म है और व्यवहारनयसे सर्वज्ञ नामका धर्म है। इस प्रकार सर्व नामका धर्म अवश्य है किन्तु यह धर्म परसापेक्ष है जैसे घटका शान, पटका ज्ञान आदि । उपहारनयको अपेक्षासे केवली जिनमें सर्वज्ञता नामका घमं वास्तविक है अतः केवलो में सर्वज्ञताके आरोप अर्थात मिथ्या कल्पनाकी कोई प्रावश्यकता नहीं है।' आदि ।
यह अपर पक्षके वक्तव्यका कुछ अंश है। इसपर विचार करने के पहले व्यवहारनय के मुख्य दो भेदोंके स्वरूपपर दृष्टिपात कर लेना आवश्यक है। व्यवहारनयके मुख्य भेद दो है-असद्भतव्यवहारनय और सद्भूतपयहारनय । अन्यत्र प्रसिद्ध धर्मका अन्यत्र समारोप करना यह असद्भुत व्यवहारनय है। तथा गुण-गुणी, पर्याय-पर्यायी आदिका भेद दिखलाना सदभूत व्यवहार है।
-आलापपद्धति स्व-परको जानना ज्ञानका स्वरूप है। यहाँ अन्यत्र प्रसिद्ध धर्मका अन्यत्र आरोप नहीं किया गया है, इसलिए तो यह असदभत व्यवहारनयका विषय नहीं है। तथा यहाँ स्वरूप कथन किया जा र कुछ गुण-गुणी आदिका भेद नहीं दिखलाया जा रहा है, इसलिए यह सद्भुत व्यवहारलयका भी विषय नहीं है। ऐसो अवस्थामें वह तीसरा कौनसा व्यवहारनय है जिसको अपेक्षा अपर पक्ष क्षायिक ज्ञानमें सर्वज्ञ नामका धर्म स्वीकार करता है और फिर सर्वसमें वह धर्म अस्तिरूप होकर भी उसे परसापेक्ष बतलाता है। किसी बस्तुका कोई धर्म उसका स्वरूप हो और फिर उसे परसापेक्ष कहा जाय यह बड़ी विचित्र कल्पना है।
अपर पक्षने अपने अभिप्रायको पुष्टि में 'घटका झान, पटका जान' यह उदाहरण उपस्थित किया है। किन्तु घटज्ञानके काल में स्व-परको जाननेरूप जो परिणाम हुआ वह ज्ञानका स्वरूप है और स्वत:सिद्ध है। वह घटके रहने पर भी होता है और घटके न रहने पर भी होता है, अन्यथा केवलज्ञान तथा स्मृत्यादि ज्ञानोंको व्यवस्था हो नहीं बन सकेगी। इतना अवश्य है कि घट-परमें और ज्ञान में जो ज्ञाप्य-ज्ञापक व्यवहार होता है वह परस्परको अपेक्षासे ही सिद्ध होता है। यही कारण है कि हमने भेद विवक्षामें आत्माको जायक कहना इसे सद्भूत व्यवहारनयका विषय बतलाकर ज्ञ यकी अपेक्षा उसे ज्ञायक कहना इसे उपचरित बतलाया है।
अपर पक्षने समयसार गा०३६२ को जयसेनाचार्यकृत टोकाके 'ननु सौगतोऽवि' इत्यादि अंशको उपस्थित कर लिया है कि 'सर्वज्ञत्व धर्म आत्मामें ब्यबहारनयसे होने पर भी सत्य है, आरोपित अर्थात् मिय्या कल्पना नहीं है।' सो इस सम्बन्ध में इतना ही कहना है कि सर्वज्ञता यह केवलज्ञानका स्वरूप है । अपर पक्ष जिस थ्यवहारनयसे उसे केवलज्ञानका धर्म बतलाता है वह व्यवहारमय उस पक्षकी अपनी कल्पनामात्र है। इसका तो यह अर्थ हुआ कि वह पक्ष सर्वज्ञताको कल्पनामें सत्य मानता है, वास्तवमें सत्य नहीं मानता । यदि यह एम सर्वज्ञताको वास्तव में सत्य मानता है तो वह ऐसा क्यों लिखता है कि सर्वज्ञत्व धर्म आत्मामें ध्यवहारनयसे है 1 तब तो उस पक्षकी ओरसे हमारे ही समान मही लिखा जाना चाहिए कि बात्मामें सर्वज्ञरव