Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर ( स्थानिया) तत्त्वचचा
व्यवहारनयको सत्यार्थ मानना आपको इष्ट नहीं है ? जिसको कि श्री अमूलचन्द सूरिने अपनी व्याख्या में परमार्थ स्वीकार किया है।
-परमात्मप्रकाशकी टोकाको उद्धत करते हुए जो आपने यह लिखा है कि "केवलो जिन जिस प्रकार अपनी आत्माको तन्मय होकर जानते है उस प्रकार पर दृश्यको तन्मय होकर नहीं जानते, इस कारण ब्बबहार है, परज्ञानका अभाव होनेसे व्यवहार नहीं कहा गया। इससे भी सर्वज्ञता निश्चयनयका विषय नहीं ठहरता। पर पदार्थके साथ ज्ञानका तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है। अपितु शेय-ज्ञायकसम्बन्ध है, अतः दो दमोंके सम्बन्ध होनेसे वह व्यवहार नमका ही विषय उदरता है। इस प्रकार आपके प्रमाणके द्वारा हो आपका मत खण्डित हो जाता है अर्थात् श्री परमारमप्रकाशसे भी सर्वशता निश्चयन्यका विषय सिद्ध नहीं होती, किन्तु व्यवहार नयका ही विषय सिद्ध होती है।
७ श्री अमितगति आचार्यके सामायिकपाठ तथा प्रवचनसार गाथा २०० की टोकाको उद्घत करते हुए आपने जो लिखा है कि 'एक ज्ञायकभाबका समस्त ज्ञेयों को जाननेका स्वभाव होनेसे सर्वज्ञ समस्त द्रव्यमात्रको एक क्षण में प्रत्यक्ष करता है, मानो वे द्रव्य ज्ञायको उत्कीर्ण हो गये हों, बित्रित हो गये हों, भोतर घुस गये हों इत्यादि। संभवतः इन वाक्यों द्वारा आप यह कहना चाहते हैं कि दर्पणकी तरह ज्ञान भो ज्ञेयाकाररूप परिणम जाता है, सो आगका यह कहना उचित नहीं है, क्योंकि दर्पण मूर्तिक है जिसको स्वच्छता मूर्तिक पके आकार व वर्णरूप परिणम जाती है, किन्नु आत्मा तो अमूर्तिक है । वह मूर्तिकपदाधोंके आकाररूप कसे परिणम सकता है ? ज्ञान ज्ञेयोंको जानता है यह बतलाने के लिये दर्पणका दृष्टास्त मात्र दिया गया है । ज्ञान ज्ञेयाकारण नहीं परिणमता है इसका युक्ति सहित स्पष्ट उल्लेख प्रमेयकमलमार्तण्ड में किया गया है जो इस प्रकार है
विषयाकारधारिस्वं च बुद्धरनुपपन्नम् , मूर्तस्यामूर्त प्रतिबिम्बासमवात् । तथाहि न विषयाकारधारिणी धुद्धिरमूर्तत्वादाकाशचन्, यत्तु विषयाकारधारि तन्मूर्त यथा दर्पणादि ।
अर्थ-ज्ञानको विषयाकार धारण करनेवाला मानना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि घट पट आदि शेय. भूत मूर्त पदार्थका अमूर्तिक ज्ञानमें प्रतिबिम्ब होना असम्भव है। ज्ञान ज्ञेयाकारको धारण करनेवाला नहीं है, क्योंकि वह अमूर्त है जैसे आकाश | जो जो ज्ञ याकार (ज्ञ योंके प्रतिबिम्ब) को धारण करनेवाला होता है वह मूर्त होता है जैसे दर्पण जलादि । ज्ञान अमर्त है, क्योंकि अमूर्त आत्माका गुण है । जिसप्रकार आकाहा में किसी वस्तुका प्रतिबिम्ब नहीं बनता, क्योंकि वह स्वभावसे अमूर्त है, उसी प्रकार आत्मा भी अमूर्त है, अतः उसमें भी पर पदाथोंके आकारका प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता।
ऐसी ही विवेचना मूलाराधना और प्रमेयरत्नमाला में भी है ।
यद्यगि ज्ञानको साकार कहा है परन्तु वहाँ आकारका अर्थ प्रतिबिम्ब न होकर अर्थविकल्प लिया है। कहा भी है-कम्मकत्तागारो भागारो तेश भागारेण सह वहमाणो उचजोगी सागारी ति।।
-जयधवल पु० ३३८ अर्यात कर्म-करवको आकार कहते है और उस आकारसे सहित उपयोग साकार उपयोग कहलाता है ।
यहाँ प्रमेयरस्नमालाके 'ज्ञानविषयभूतं वस्तु कमस्यमिधीयते' इस उल्लेख के अनुसार कर्म का अर्थ शेय लेना चाहिए, उसका विकल्प ज्ञानमें आता है, अतः ज्ञानको साकार कहते हैं । यदि कहीं पर मानमें ज्ञेयोंक प्रतिबिम्ब अथवा ज्ञानकी जयाकार परिणति कही गई है तो उसका वहाँ इतना ही प्रयोजन है कि जिस प्रकार