Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा अर्थ-प्रश्न-बोद्ध भी तो व्यवहारसे सर्वज्ञ कहते हैं, उनको दूषण क्यों दिया जाता है ?
समाधान–बौद्धमतमें जिस प्रकार निश्चयकी अपेक्षा व्यवहार झूठ है उसी प्रकार व्यवहाररूपसे व्यवहार सत्य नहीं है, किन्तु जैन मतमें अपहारनय यद्यपि निश्चयको अपेक्षा झूठ है सथापि व्यवहाररूपसे सत्य है।
इसलिय सर्वज्ञत्व धर्म आत्मामें व्यवहारनयसे होने पर भी सत्य है, आरोपित अर्थात् मिथ्या कल्पना नहीं है । किसी एक वस्तुके धर्मको शिसी नियमित अपेच्चाके आधार पर दूसरो वस्तुमें कहना आरोपित कहलाता है, किन्तु उसी वस्तुके धमको उसी वस्तुमै कहना आरोपित नहीं कहा जा सकता है। जब सर्वज्ञता सावित आत्माकी है तब उसका आत्माम कथन करना आरोपित कैसे कहला सकता है ? उस शक्ति का स्वरूप ही जब परको जानना है तब परकी अपेक्षा तो उसमें आवेगी ही। परको जाननेका नाम ही परजता है। यहाँ पर हमारा प्रश्न सर्वज्ञत्व गाक्तिको अपेक्षासे नहीं है क्योंकि यह तो निगोदिया जीवमें भी है। किन्तु सर्वशतारूप उस परिणतिसे है, वह परिणति सर्व पर वस्तुके आश्रयसे ही मानी जा सकती है। अतएव पर (सर्वज्ञम) आथित होनसेवहारमयका विषय हो जाता है। जैसे जीव में विभावरूप परिणमन करने को अनादि पारिणामिक शक्ति है। यह शक्ति कमि उत्पन्न नहीं गई, क्योंकि. निमिसकारण शक्ति उत्पन्न नहीं कर सकते । इस शक्तिका विभावरूप परिणमन बाह्य निमित्त पाकर हो होता है। आपके सिद्धान्तानुसार यदि विभाव परिणमनको दस शक्तिको अपेक्षासे देखा जाय तो यह भी स्वाश्रित होनेसे निश्चयका विषय बन जायगा । किन्तु ऐसा है नहीं । क्योंकि समयसार गाथा ५६ में 'रागादि विभावको जीवके हैं' ऐसा व्यवहारनयसे कहा है।
३-केवळी जिनमें आत्मज्ञता और रार्वज्ञता ये दोनों धर्म भिन्न भिन्न नयोंकी अपेक्षासे है अति आत्मजता निश्चयनयको अपेक्षा है और सर्वज्ञता व्यवहारनयकी अपेक्षासे है अथवा आत्मशता स्वअपेक्षासे है और सर्वज्ञता पर अपेक्षासे है । अत: आत्मज्ञतामें सर्वज्ञता धर्म नहीं समा सकता है, किन्तु ये दोनों धर्म दो नयोंकी अपेक्षासे भिन्न भिन्न होते हुए भी केबली जिनमें एक साथ रह सकते है।
४-सर्वज्ञता गद्यपि पर-सापेक्ष है तथापि वह असद्भूत नहीं है, किन्तु यथार्थ है । जो धर्म पर सापेक्ष है उसे परसा कहना तो शल्प है, वह सद्भुत कैसे हो सकता है ? परसापेन होनेसे असद्भूत व्यवहार नयका विषय होते हुए भी असत्यार्थ नहीं है । अद्भत व्यबहारनय का लक्षण इस प्रकार है
भिन्नत्रस्तुविपयोऽसद्भुतव्यबहारः । -आलापपद्धति अर्थ-जो भिन्न वस्तुको विषप करे वई असद्भुत ध्पयहारनप है ।
निश्चयन यका विषय दो भिन्न वस्तु नहीं है, अतः निश्च वनयको अपेक्षा सर्वज्ञता नहीं है। किसी भी आगममें निश्चयनयको अपेक्षा सर्वज्ञता स्वीकृत नहीं की गई है। समयसार गाथा २७२ की टीकामें भी थी अमृतमूरिने कहा है
आत्माश्रितो निश्चयनयः पराश्रितो व्यवहारनथः । अर्थ-निश्चय नय आत्मा (स्त्र) के आश्रित हैं और व्यवहार नय परके आश्रित है । जयधवल पुस्तक १ पृष्ठ २३ पर कहा हैमात्मार्थव्यतिरिक्तसहायनिरपेक्षत्वाद् वा केवलमसहायम् ।