Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका ७ और उसका समाधान
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६. परमात्मप्रकाशकी टोकाको उद्धृत करके लिखा है 'केवलो जिन जिस प्रकार अपनी आत्मा को तन्मय होकर जानते है उस प्रकार पर द्रव्यको समय होकर नहीं जानते इस कारण व्यवहार कहा जाता है, पर जानका अभाव होने से व्यवहार नहीं कहा गया है
७. श्री अमितगति आचार्यके सामायिकपाठका इलोक तथा प्रवचनसार गाथा २०० की टीका उधृत करते हुए कहा है कि 'एक ज्ञायकभावका समस्त ज्ञेयोंको जाननेका स्वभाव होने से समस्त द्रव्यमात्रको एक क्षण में प्रत्यक्ष करता है, मानो मे द्रव्य ज्ञायकमे उत्कोण हो गये हों, चित्रित हो गये हों, भीतर घुस गये हों इत्यादि ।
८. स्वरूप सर्वज्ञता पटित हो जानेपर जिस समय समस्त ज्ञेयोंकी अपेक्षा उन्हें सर्वज्ञ कहा जाता है तब उनमें यह सर्वज्ञता परकी अपेक्षा आरोपित की जानेके कारण उपचारित सद्भूत उपहार से सजा कहलाती है ।
६. जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिम्बित करने की योग्यता स्वभावसे है उसी प्रकार जानकार रूप परिणमन करना उसका स्वभाव है।
१०. नवाकर परिणमत जेयोंके कारण हुआ है तब वह व्यवहार कहलाता है, क्योंकि ऐसे कथनमें वस्तुकी स्वभावभूत योग्यताको गौणकर उसका पति कथन किया गया है। अब इन द विषयोंके सम्बन्ध में विचार किया जाता है
१-आपने स्वयं सोलह प्रश्न के उत्तर में लिखा है-
"यह तो निर्विवाद सत्य है कि ज्ञायकभाव स्वपरप्रकाशक है। स्वप्रकाशकको अपेक्षासे आत्मज्ञ और परप्रकाशककी अपेक्षा सर्वज्ञ है। जामक कहते हो शेयोंकी यनि आ जाती है। आत्माको कहना सद्भूत व्यवहार है और परमेयोंको अपेक्षा जायक कहना यह उपपरित सद्भूत व्यवहार है।
'सर्व' शब्द दो से मिलकर बना है (१) सर्व और (२)
'सर्व' का अर्थ समस्त और 'श' का अर्थ जाननेवाला है । इस तरह सर्व जानातीनि सर्वज्ञः इस व्युत्पत्ति के अनुसार सबको जाननेवाला सर्वज्ञ है। सर्वशाद स्वयं परसापेक्षा होतक है परविशका पोशक नहीं है इसीलिये वो कुन्दकुन्द भगवानने नियमसार गाथा १५२ ने कहा है कि उसे केवली भगवान् सबको जानते और देखते हैं। निश्चय नयकी अपेक्षा केवलज्ञानी नियमसे आत्मा को जानते और देखते है। श्चियनवकी अपेक्षाज्ञानी परको नहीं जानते ...... गाथा में पड़े हुए नियम शब्द यह स्पष्ट कर दिया है।
२--चार पतिया कमका क्षय हो जानेसे आत्मा शानि अर्थात् केवलज्ञान प्रकट हो जाता है। उस धादिक ज्ञान 'आत्मज्ञ नामका धर्म है और व्यवहारय 'सर्व' नामका धर्म है। इस प्रकार सर्वज्ञ नामका धर्म अवश्य है किन्तु यह धर्म, परसापेक्ष है, जैसे घटका ज्ञान, पटका ज्ञान आदि । ययहारनयकी अपेक्षासे केवली जिसमें सर्वज्ञता नागका धर्म वास्तविक है अतः केवली में सर्वज्ञताके आरोप अर्थात् मिया कहनाकी कोई आवश्यकता नहीं है। समयसार गाथा ३६२ को टोका श्री जयसेनाचार्य कहा भो है
ननु सौगतोऽपि यवहारेण सर्वज्ञः तस्य किमिति दूषणं दोयते भवद्भिरिति । तत्र परिहारमाहसौगतादिमते यथा निश्वयापेक्षया व्यवहारो ग्रुप तथा व्यवहाररूपेण व्यवहारो न सत्य इति । जैनमले पुनः व्यवहारनयो यद्यपि निश्चयापेक्षया सृषा तथापि व्यवहाररूपेण सत्य इति ।
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