Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका ७ और उसका समाधान
५०१ इसी आशयको ध्यान में रखकर श्री अमितगति प्राशार्थने सामायिकाठमें कहा है....
विजोक्पमतो राति या लिलोय ते पटान पविक्त । आत्माके अबलोकन करने पर जिसमें { आत्मामें ) वह ममस्त विश्व पृथक-पृथक् स्पष्ट रूपसे प्रतिभासित होता है।
प्रकृतमें उपयोगी श्री प्रवचनमारजोका यह उल्लेख द्रव्य है
अथैकस्य नायकभावस्य समस्तझयभावस्वभावल्वात प्रकोणलिखित-निखात-कालिति-मनित-समा. वर्तित-प्रतिविम्बितवत्सत्र क्रमप्रवृत्तानन्तभूतभत्रभाविविचित्रपर्यायप्रारभारमगाधस्वभानं गम्भीर समस्तमपि वन्यजासमेकक्षण एवं प्रत्यक्षयन्तं"।
-गा.२००-टीका बथ:-अब, एक ज्ञायक भावका ममस्त शेयोंकी जानने का स्वभाव होनेसे क्रमशः प्रवर्तमान, अनन्त, मृत-वर्तमान-भावो विभित्र पर्याय समुहवाले, अगाधस्वभाव और गम्भीर समस्त द्रव्यमात्र को-माना व द्रव्य सायकउत्कीण हो गये हों, चित्रित हो गये हों, भीतर धुरा गये हां, कीलित हो गये हों, डब गये हों, समा गये हों, प्रतिविम्बित हुए हों, इस प्रकार- एक क्षण हीजो (शुदात्मा) प्रत्यक्ष करता है ।
प्रतिशंकाके प्रारम्भमें हमारे मतके रूप में जो यह लिम्ला गया है कि वनली भगवान् गद्य पदार्थों को ध्यवहारनपसे जानते हैं, अतः उनको यह सर्वशता असद्भुत हैं या आप प्रतिपादन किया है और असद्भत शब्दका अर्थ आरोपित किया है तो इस सम्बन्धगें वक्तव्य यह है कि हमने स्वयं शंकर प्रस्तुत करते हुए शंकाके रूपमें यह लिखा है कि यदि वह मात्र पराश्रित है तो उसे अद्भुत मानना पड़ेगा।' जब कि हमने .उसे (सर्वज्ञताको) स्वाश्रित सिद्ध किया है तब ऐसी स्थिति में सन्नम सर्वज्ञता सद्गृत ही है, नसे असद्भूत किसी भी प्रकार नहीं माना जा सकता। ऐसा ही आगम है और यही हमारा अभिप्राय है।
(२) इस प्रकार स्वरूपसे सर्वज्ञताके सम्यक् प्रफारसे घटित हो जानेपर जिरा रागय त्रिलोक और त्रिकालवति बाह्य में अवस्थित समस्त जयों की अपेक्षा उन्हें सर्वज कहा जाता है तब ना यह सर्व ला परकी अपेक्षा आरोपित की जाने के कारण उपचारत सात व्यवहार मलिता कहलाती है। जमवार दीपक स्वरूपसे प्रकाशक धर्म के कारण प्रकाशक है घटादि पदाकि कारण नहीं है उमीनार .बली जिन स्त्ररूपसे सर्वश है पर पदाथोंके कारण नहीं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
इस प्रकार प्रतिकामें उल्लिखित दो प्रश्नोंका सम्यक निर्णय करने के बाद प्रतिशंकामें अध्यात्मवादियोंके जो फलित रूपमें दो मतों का उल्लेख किया गया है उसका आगन हमारी समझ में नहीं आया, क्योंकि अमतचन्द्र सूरिका कोई स्वतन्त्र मत हो और नियसार का स्वतन्त्र, एमा नहीं है। हमें तो यह पड़कर बहुत आश्चर्य हुआ । वस्तुतः ज्ञानके लिए आगममें प्रायः सर्वत्र दणका दृष्टारा दिया गया है की बस द्वारा यह ज्ञान कराया गया है कि जिस प्रकार दर्पणा प्रतिबिम्बित करनेको शक्ति स्वभाव है उसी प्रकार ज्ञानका ज्ञेवाकाररूप परिणमन करना उरावा अपना स्मभाव है। किन्तु जय इसका परको अपेक्षा प्रतिपादन किया जाता है । जैसे यह कहना कि वर्षणमे पड़ा हुआ प्रतिविम्ब दूसरे के कारण पड़ा है तब यह व्यवहार कहलाता है। इसी प्रकार ज्ञानका जेयाकार परिणमन कन्ना उसका अपना स्वमा है। किन्तु कब यह कहा जाता है कि ज्ञानका ज्ञेयाकार परिणमन ज्ञेयों के कारण हता है तब यह व्यवहार कहलाता है, क्योंकि ऐसे कथनमें वस्तुको स्वभावभूत योग्यताको गौणकर उसका राश्रित कयन किया गया है, इसलिए यह व्यवहार