Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका ६ और उसका समाधान
इत्यादि श्लोक कथन के साथ विरोध कहाँ है यह हमारी समझ नहीं आया। यदि मीमांसाकथन का उनके साथ विरोध है ऐसा माना जाय तो स्वयंभूस्तीष, प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा हरि पुराण जो प्रमाण हम अभी दे आये है उनके कनके साथ भी आप्तमीमांग के उक्त कथनका विशेष मानना पड़ेगा। क्या अपर ग इसे स्त्रीकार करेगा ? वह इसे स्वीकार करे या न करे | किन्तु उस पक्ष के इस आवरण जो स्थिति उत्पन्न हो गई है उसका स्पष्टीकरण करना अपना कर्तव्य समझकर यहाँ हमने उसे स्पष्ट किया है।
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अपर पक्षकी ओरसे यांवर जो ८८ ८२, ६० और १ उन चार कारिकाओंका आशय दिया गया है उसमे किसी कारिका के ब्राजय में यद्यपि विप्रतिपत्ति हो सकती है पर उसको हम यहाँ विशेष चरचा नहीं करेंगे। माँ इतना अवश्य कह देना चाहते हैं कि अपर पलने जो 'मोक्षस्यापि' इत्यादि वचनको उद्घृत कर उम्र द्वारा जो गोकी उभयकारणता का निर्देश किया है मां उस वचनमें वह उभयरूप कारणता उपचरित और अनुपचारित इन दोनों दृष्टिमोंको ध्यान में रखकर ही वर्णित की गई है। ऐमी उभयरूप कारणताका निवेदन तो हमने कहीं किया ही है और न हो सकता है। चाहे अनन्त अस्ल गुणांका पदगुणी हानिवृद्धिरूप कार्य हो या अन्य कोई कार्य हो, यह उभयरूप कारणता यथायोग्य सबमें पाई जाती है ।
अपर पाइयादि श्लांनपर इन बातोंको आधार बनाकर अपनी प्रतियांकाका कलेवर पुष्ट किया है
१. 'वह पत्र जैन संस्कृतिकी मान्यता के विरुद्ध क्यों है ?
२. बौर यदि विषय है तो फिर श्री
दिया है ?
देवने इसका उद्धरण अपने अन्य किस वायसे
३. तथा जैन संस्कृति में मान्य कारणव्यवस्थाके साथ उसका मेल बैठता है तो किस तरह बैठता है ? ४. इतना ही नहीं, इसके साथ हमें इस बातका भी विचार करना है कि इसको सहायताले श्री पं० और आप कारस्थासम्बन्धी अपने पक्ष की दृष्टि करने को सफल हो सके है ?"
उसका हमने जो अर्थ
१. प्रथम प्रश्नकी व्याख्या करते हुए अपर पक्षका कहना है कि किया है उसके आधाश्चर प्राणियों को अर्थसिद्धिके विषय जैन संस्कृति द्वारा मान्य देव और सम्मिलित कारणताफा प्रतिरोध ही करता है ।'
समाधान यह है कि उक्त पदमें मात्र प्रत्येक कार्यको वाह्याभ्यन्तरसामग्री कि आधारपर मिलती है इतना ही विचार किया गया है, अतः उससे गो-मुरुभावते अर्थसिद्धि देव और पुरुषार्थको एक साथ स्वीकार करनेमें कोई बाधा नहीं आती, अतः यह जैनदर्शन ( जिसे अपर पक्ष जैन संस्कृति कहता है उस ) का पोषक ही है । इसका अर्थ भी इस आशय से किया गया है। स्पष्ट है कि उक्त श्लोकमं जो अर्थ निषिष्ट है उनका जैनदर्शन के साथ निर्विवाद से अविरोध ही सिद्ध होता है । अतः उसे प्रमाण में उपस्थित करना
सर्वथा उचित है।
२. दूसरे
का करते हुए अपर पक्षका कहना है कि उक्त पद्य सा अपने पक्षकी पुष्टि करता है इस आशय से भट्टालकदेवने उसे उपस्थित कर केवल पुरुषार्थ सिद्धि माननेवाले दर्शनका खण्डन करने अभिप्रायले उसे उपस्थित कियर है।'
न