Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर (स्थानिया) तत्त्वचर्चा
पाया जानेवाला मृतिका धर्म मिट्टीकी अपेक्षा स्वाभाविक होते हुए भी नाना उत्पन्न होने के कारण कार्य ही कहा जायेगा ।'
यह अपर पक्ष के वक्तव्यका अंश है। इसमें अतर पक्षने मृतिका धर्म मिट्टोको अपेक्षा स्वाभाविक लाकर भी उसे नाना क्योंके मिश्रणसे उत्पन्न होने के कारण एक कार्यधर्म कहा है, किन्तु अपर पक्षका यह कथन आगमविरुद्ध होने से भ्रामक हो है, क्योंकि प्रत्येक परमाणु यदि स्कन्ध योग्यता और मिट्टीरूप परिणमने की योग्यता स्वाभाविक न मानी जाय और केवल उसे संयोग जन्य माना जाय तो कोई भी परमाणु अपनी स्वाभाविक योग्यता के अभाव में रूपया मिट्टी त्रिकालमें नहीं परिणम सकता । सत्यार्थवार्तिक अध्याय ५ सूत्र में यह प्रश्न उठाया गया है कि परमाणु पूरणगल स्वभावकाला न होने के कारण उसे पुद्गल नहीं कहा जा सकता। आचार्य कलंकदेव इस प्रदनका समाधान करते हुए हैं कि पहले या भविष्य में वह पूरण-ल-२
अपेक्षा
परमाणुको पुद्गल कहने में कोई बाधा नहीं आती । वह उल्लेख इस प्रकार है—
अथवा गुण उपचारकल्पनम् पूरणगलनयोः मात्रित्वात् भूतवाच्च शस्यपेक्षया परमाणुवु पुड्गस्वोपचारः ।
पुद्गल
यह वो परमाणु को पुल क्यों कहा गया इसका विचार है। आगे इस बातका विचार करना है कि पर माणु मिट्टीरूप शक्ति होने के कारण मिट्टी में मिट्टीरूप धर्म पाया जाता है या केवलमा लोके उसमें वह धर्म उत्पन्न होता है। आचार्य अमृतचन्द्र पंवास्तिकायको टोकामै शव्दकी अपेक्षा इसका विचार करते हुए लिखते हैं
एवमुकगुणवृत्तिः परमाणुः शब्दस्पपरिणतिशक्तिस्वभावात् शब्दकारणम् ।
—
ऐसा यह उक्त गुणवाला परमाणु शब्द स्कन्धरूप परिणत होने की शक्तिरूप स्वभाववाला होनेसे शब्दका कारण है ।
इससे स्पष्ट विदित होता है कि जिस प्रकार परमाणु शब्दरूप परिणमनको वक्तिले युक्त होता है उसी प्रकार इससे यह भी सिद्ध होता है कि वह मिट्टीरूप परिणमनकी शक्तियें भी यूज होता है। अतएव मिट्टी में पाया जानेवाला मूर्तिकार धर्म नाना स्कन्धों के परस्पर निधन ही उत्पन्न होता है ऐसे एकाको न स्वीकार करके उसे शक्तिकी अपेक्षा नित्व हो मानना चाहिए। साथ ही उसे जो एकान्तसे कार्यधर्म कहा गया है वह भी युक्त नहीं है, क्योंकि कोई भी द्रव्य किसी अवस्था में न तो केवल कार्य हो स्वीकार किया गया है और न केवल कारण ही अपने पूर्व पर्यायी अपेक्षा जो कार्य होता है. अपनी उत्तर पर्यायी अपेक्षा वह कारण भी होता है ।
इस दृष्टिसे विचार करने पर यह भी विदित हो जाता है कि लोंकी स्कन्ध] अवस्थामें जो जो पर्याय उत्पन्न होती है वे सब शक्तिरूप से परमाणु में विद्यमान हैं। यह प्रत्येक परमाणुका स्वतःसिद्ध स्वरूप है 1 अपर पक्ष के वक्तव्य पढ़ने से विदित होता है कि वह प्रत्येक परमाणु में ऐसी योग्यता तो मानता है कि एक परमाणु दूसरे परमाणु या स्कन्धके साथ संयोगको प्राप्त होकर उरूप परिचम जाता है। किन्तु जिस जाति स्कन्ध रूप वह परमाणु परिणमा उस प्रकारकी शक्ति वह परमाणुमें स्वीकार नहीं करता इसका हमें आश्चर्य है 1 परमाणुमें घटरूप कार्यकी व्यवहार उपादानताका भी निषेध वह इसो अभिप्रायसे करता है । जो शक्ति मूल द्रव्यमें न हो वह उसके उत्तर कार्यों में उत्पन्न हो जाय, यह सम्भव तो नहीं है, परन्तु अपर पक्ष अपनी कल्पना में इसे मूर्तरूप देनेके लिए अक्षम हो सनख है।