Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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१६सास सस यह फालत होता का
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जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा हमने अपने पिछले उत्तरमें लिखा है कि 'गेहूँ पर्यायविशिष्ट पुद्गल तथ्य बाह्म कारण सापेक्ष गेहूंके अंकगदि कार्यरूपसे परिणत होता है। इस पर अपर पक्षका कहना है कि 'यह यदि बद्धिनमसे न लिख कर बुद्धिपूर्वक ही लिखा है तो इससे तो कार्य के प्रति निमित्तकारणको सार्थकताका ही समर्थन होता है ।' आदि ।
किन्तु हम यहाँ पर यह रूपए कर देना चाहते हैं कि हमारे उक्त वाक्यके आधारसे अपर पक्षने यहाँ पर जो कुछ मा अभिप्राय व्यक्त किया है वह स्पाय नही है..कि जो उक्त वचन मात्र द्रव्ययोग्यताको उपादान माननेवाले अपर पक्ष के इस मतका निरसन करने के अभिप्रायसे ही लिखा है। यदि अपर पक्ष सक्त वचनके आधारसे यह फलित करना चाहता है जैसा कि उसकी औरसे फलित किया गया है कि गेंहूँ पर्याय विशिष्ट सभी पुद्गल द्रव्य अंकुरमै लेकर आगेके कार्योंके उपादान हैं तो उसके द्वारा उक्त वाक्यके प्राधारसे ऐसा फलित किया जाना भ्रमपूर्ण है, क्योंकि यहां पर 'अंकूरादि' पदमें आया हा. 'आदि पर प्रकारवाषी है। इसलिए इससे यह
| गेहूँ जिस समय जिस पर्यायके सन्मुख होता है उस समय वह उसका उपादान होता है, अन्यका नहीं। बागमका भी यही अभिप्राय है और हसी अभिप्राय को ध्यान में रख कर उक्त वचन लिखा गया है। कोठेमें रखा हुआ गेहूँ इसलिए अंकुरको उत्पन्न नहीं करता, क्योंकि उम मामय वह अंकुरका उपादान न होकर अन्य कार्यका उपादान है। वस्तुतः बाह्य सामग्री अंकुरको उत्पन्न करने में अकिचिकर है।
न रही बाह्य कारण सापेक्षताको बात सो इस वचन द्वारा मात्र व्यवहार ( उपचरित ) पक्षको स्वीकार किया गया है। जिस समय गेंहूँ अंकुरको उत्पन्न करता है उस समय उसके बाह्य सपकरण कसे होते है यह बात उक्त वचन द्वारा स्पष्ट की गई है, क्योंकि बाह्य सामग्री उपकरणमात्र है ऐमा आचार्यों का भी अभिप्राय है 1 उपकरणमाय हि बाझसाधनम् (तत्त्वार्धतिफ अ० १ सू० २) । प्राय सामग्री उपादानकी क्रिया करके चसमें उसके कार्यको उत्पन्न कर देता है ऐमा यदि अपर पक्ष सहायकका अर्थ करता है तो वह आगम, तर्क और अनुभव सबके विरुद्ध है, क्योंकि एक द्रब्य अपनी सत्ताको लापकर दूसरे द्वन्धको सत्तामें प्रवेश करे यह सर्वथा असम्भव है।
अपर पक्षने 'पृद्गलरूप पशक्ति हो पर्वाप विशिष्ठ होकर गेहूँरूप पर्यायको उत्पन्न करती है। इसे हमारी मान्यता बतलाकर उसका खण्डन करते हुए अपने अभिप्रायकी पुष्टि करनी चाही है। किन्तु वह सब कथन पूर्वोक्त कथनके प्रकाश में सुनरां खण्डित हो जाता है, क्योकि एक द्रव्यका कार्य दूसरे द्रव्यके सहयोगसे होता है यह जपचार वचन है जो केवल दोनोंकी कालप्रत्यासिको सूचित करता है। तभी तो आचाय कुन्दकुन्दने व्यवहारमयसे आत्मा पृद्गल फर्म को करता है इस कथनको सदोष इतलाते हुए सगयसार गाथा ८५ में उसका निरसन किया है।
हमने अपने पिछले उत्तर में लिखा है कि 'गेहूँ पुद्गल द्रव्य की एक पर्याय है। किन्तु आर पक्षने इसे भी अपनी टोक का विषय बनाया है । हम उसके उत्तरस्वरूप इतना ही संकेत कर देना चाहते हैं कि गेहूँ एक पुद्गल द्रव्यको पर्याय है ऐसा न तो हमने लिखा है और न है ही। आगमके अनुसार वस्तुस्थिति यह है कि प्रत्येक पद्गल परमाणुमें स्कन्धरू होने की योग्यता है, इसलिए वे 'अधिकादिगुणानां तु' सिद्धान्त के अनुसार स्कन्धरूप परिणम कर मेहेल्प व्यंजनपर्यायानेको स्वयं प्राप्त होते है।
अपर पक्षने यहाँ पर किसी बहाने संयोगकी चरचा करते हुए तथा अग्नी दृष्टिसे कार्यकारणभावके वास्तविक आघारको बसलाते हुए अन्त में यह निष्कर्ष फलित किया है कि 'घटरूप कार्यक उत्पन्न करने में