Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा
का० ५६ )पर वह उपयोग किसका आलम्बन लेना मोक्षमार्गी के लिए अत्यावश्यक है इस अपेक्षा से कहा है । आचार्यने निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्रीका परिहार बहीपर भी नहीं किया है। विवक्षा में प्रयोजनवश एकको गौण करना और दूसरेको मुरूष करना अन्य बात है और एकके द्वारा सिद्धि मानकर दूसरेका निषेध करना अन्य बात है । वाह्य दृष्टिवाले मिध्यादृष्टि जीव सदा बाह्य साधनका लिए रहते है और 1 उनसे लौकिक तथा पारमार्थिक कार्योंकी सिद्धि मानते हैं। आचार्य कहते हैं कि बाह्य आलम्बन तो संसार परिभ्रमणका कारण है, मोक्षमार्गी के लिए वह स्वभावानुकूल आत्मपुरुषार्थ जागृत करने में सहायक नहीं । यदि वह यथार्थ में अपने जीवन में मोक्षमार्ग या मोक्षकी प्रसिद्धि करना चाहता है तो उसे अपने त्रिकाली ज्ञायक स्वभावका अवलम्बन लेना हो पर्याप्त है। उसे बाह्य साधनोंकी उठाधरीके त्रिकल्पसे बचना ही होगा, तभी उसमें मोक्षकार्यकी प्रसिद्धि सकती है, अन्यथा नहीं 1
अपर
इस प्रकार इतने विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि तत्त्वार्थवार्तिकके उक्त उल्लेख के आधारसे जो आशय फलित किया है वह अपर पकी कोरी मनकी कल्पना है। जब प्रत्येक कार्य बाह्य और आभ्यन्तर दो प्रकारके साधन हैं तो प्रत्येक कार्य में उन्हें स्वीकार करना लाजिमी हो जाता है । यही तस्वार्थवार्तिकके उक्त उल्लेखका आशय है । प्रसंगसंगत होनेसे हम यहाँ यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि बहुगुणी होनि वृद्धिरूप परिणमन मात्र स्वप्रत्यय होता है यह कथन यद्यपि आगम-विरुद्ध है फिर भी इस आगम-विरुद्ध कथन के उत्थापन के कार्यका साहस जैसे अपर पक्ष कर सकता है और इस प्रकार बाह्य साधन सामग्री बिना ही वह केवल उपादानके बलसे घोषणा करता हुआ तत्त्वार्थवातिके उक्त उल्लेखका उल्लंघन करता हुआ भी नहीं डरता, सचमुच में वैसा राहिय करना हमारे यूतेके बाहर है। हमें निश्वय पक्ष के समान व्यवहार पक्षका पूरा ध्यान है और इसलिए हम निश्चय और व्यवहार पक्षका वही अर्थ करते हैं जी आगमको इष्ट है, कल्पनाके ताना-बाना बुनना हमारा कार्य नहीं ।
१३. असद्भूत व्यवहारनयका स्पष्टीकरण
इसी प्रसंग अगर पक्षने असद्द्भूत व्यवहारनयका भी विचार किया है। उसका कहना है कि 'नय वही हो सकता है जिसका विषय सद्भूत हो | अद्भूत अर्थको ग्रहण करनेवाला नय ही नहीं हो सकता । यदि नय अद्भूत अर्थको भो विषय करता है तो उसके द्वारा आकाशकुसुम या गधे के सींगका भी ग्रहण होना चाहिए | यतः कोई भी नय आकाशकुसुम या गधेके सींगको नहीं ग्रहण करता अतः प्रत्येक नय सद्भूत अर्धक ही विषय करता है इसे स्वीकार कर लेना चाहिए।' लगते इस विषयकी पुष्टिमें उस पक्ष की ओरसे द्रव्याथिक नयकी अपेक्षा द्रव्य कथंचित् नित्य है और पर्यायादिकनयको अपेक्षा द्रव्य कथंचित् अनित्य है यह उदाहरण उपस्थित किया गया है। किन्तु अपर पक्ष इस बातको भूल जाता है कि प्रत्येक द्रव्यमें रहनेवाले नित्यत्व और अनित्यत्व धर्म जहाँ सद्भूत है वहीं दो द्रव्योंके आश्रयसे प्रयोजनवश स्वीकार किये गये निमित्तत्व और नैमित्तिकत्व धर्म सद्भूत नहीं हैं, क्योंकि एक द्रव्यके धर्मको दूसरे द्रव्य में सत्स्वरूप स्वीकार करनेपर उसमें दूसरे द्रव्यकी सत्ता भो स्वीकार करनी पड़ती है और इस प्रकार दो द्रव्यों में एकता प्राप्त हो जाती है जिसे स्वीकार करना सर्क, आगम और अनुभव के सर्वथा विरुद्ध है। यही कारण है कि आगम में असद्भूत व्यवहारका लक्षण करते हुए लिखा है कि अन्यत्र प्रसिद्ध धर्मका अन्यन्त्र समारोप करना असद्भूत व्यवहार हैं। उपचार भी इसका दूसरा नाम है । बालपद्धति में 'प्रसद्भूत व्य हारनय भिन्न वस्तुको विषय करता है।' यह लक्षण भी इसी अभिप्रासे किया गया है। आलाप