Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर ( स्वानिया ) तत्त्वचर्चा द्वारा होने के कारण उनके साथ कावके अन्यच्यातरकका ज्ञान करने के लिए व्यवहारनयसे आगममें' 'उभयनिमित्तसापेक्ष' या 'बामदण्डादिनिमित्तसापेक्ष' इत्यादि कथन किया गया है।
किसी भी कार्य में अन्य किसीकी अपेक्षा रहती हो ऐसा तो वस्तुका स्वरूप ही नहीं है, वह तो स्वत:सिद्ध होता है। उदाहरण के लिए सक्षमस्वरूप वस्तुको लीजिए । वस्तृका यह स्वरूप है जो नियमसे परनिरपेक्ष है। फिर भी वस्तुमें अस्तित्व धर्म की सिद्धि स्वचतुष्टयकी अपेक्षा की जाती है और नास्तित्व धर्म की सिद्धि पर चतुष्टयकी अपेक्षा की जाती है। इसका अर्थ यह नहीं कि प्रत्येक वस्तुम अस्तित्व धर्म स्वचतुष्टयकी अपेक्षा रहता है और नास्तित्व धर्म परचतुष्टयकी अपेक्षा रहता है । यदि ऐसा माना जाय तो सदरात्स्वरूप वस्तु ही नहीं बनेगो । अतः प्रत्येक वस्तुको सदरात्स्वरूप परनिरपेक्ष स्वतःसि मानना चाहिए । यही कथन परमार्थ सत्य है, अन्य सब व्यवहार है। उसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिए ।
यही कारण है कि कर्ता, कर्म और क्रिया इन तीनोंमें वस्तुपनेसे अभेद सूषित करके गरमागमने इस परमार्थ सत्यका उद्घाटन किया है कि जिस समय वस्तु विसरूप परिणमती है वह सन्मय होती है। इसे निश्चय कसन बहनेका यही कारण है। किन्तु रामयभेदसे किम समय प्रत्येक वस्तु किम रूप परिणमती है इसको मिद्धिका उपाय क्या यह बतलाने के लिए अगममें बाह्य और आसन्तर उपाधिके आधारसे उसकी सिद्धि की गई है और यह कहा गया है कि जिस बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिके साथ जिस कार्य द्रव्यका अन्वय-व्यतिरेक मिले उसे उसका कारण कहना चाहिए। और इसी अभिप्रायको ध्यान में रखकर आगमन यह वचन उपलब्ध होता है कि-'यदनन्सरं यद्भवति तत्तत्कारणमितरकार्यम् ।' स्पष्ट है कि कार्यको सिद्धि की विवक्षामें 'उभयनिमिचसापेक्ष' इत्यादि वचन प्रयोजनान् है, स्वरूपके उद्घाटन में नहीं। 'निश्चयनय वचन स्वरूपका उद्घाटन करता है, इसलिए यथार्थ है और व्यवहारनय बनाम स्वरूपका उद्घाटन करके उसका कर्ता परको कहता है, इसलिए उपचरित है। इसमें भेदविवक्षामें मद्भूत व्यवहार वचनका तथा सर्वथा भेदविवक्षामें असद्ध · व्यवहार वनका दोनोंका परिग्रह हो जाता है । यह सापेक्ष कथनका थोड़े में खुलासा है। इसे स्पष्टरूपसे सारझने के लिए अपर पश्न आप्तमीमांसा कारिका ७५ और उसपर लिखी गई बरशती तथा अष्टमहम्रो टीका पर दृष्टिपात करेगा ऐसा हमें विश्वास है ।
आवायं कुन्दकृदने 'जीवपरिणामहंदु" यह वचन इसलिए नहीं लिखा है कि जीवके परिणाम कर्मको उत्पत्र करते है और म जीवके परिणामों को उत्पन्न करते है। किन्तू किस जीवके परिणामके साथ कमकी और किम कर्मपरिणामके गाथ जीव परिणामके होने की बाह्य व्यानि है, मात्र इसकी सिद्धि इम वचन द्वारा की गई है और तभी यथार्थताका ज्ञान कराते हए अगली गाथामें मह लिख दिया है कि कर्म जीव परिणामको उत्पन्न नहीं करता और जोव कर्मपरिणामको उत्पन्न नहीं करता। जो जिमकी सिद्धिका खेल है उसमें निमित्त व्यवहार करना अस्प बात है और उसे उपका यथा का मान बैठना अन्य बात है। यह तो महामिथ्यात्व है।
इसी प्रसंगमें बार पक्षने लिखा है कि-'असंख्यात प्रदेशो जीवको जब जैसा शारीर मिलता है तब उसे जयरूप परिणमना पड़ता है। और माथ ही इसे आगम कपन बतला कह यह भी लिख दिया है कि 'इसे हम स्वीकार करते हैं।' इसका हमें आश्चर्य है । वास्तव में यह हमारा कयन नहीं है। किन्तु अपर पक्षको उस मान्यताका संक्षिप्त उल्लेख है जिसका निर्देश अपर पक्षने इसी प्रश्न के द्वितीय औरके समय अपनी प्रतिशंकाम किया है जो इस प्रकार है-'तीसरी बात यह है कि असंख्यातप्रदेशी जीव शरोर परिमाणके छोटे