Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका ६ और उसका समाधान
४८१ इस उल्लेख में आया हुआ 'स्वावसरे' पद ध्यान देने योग्य है। जब कि द्रश्य-पर्यायात्मक प्रत्येक उपादान बवने प्रतिनियत कार्यका सूचक है और उसकी उत्पत्ति में प्रतिनियत बाह्यसामग्रीका ही योग मिलता है, ऐसी अवस्था में प्रत्येक कार्य प्रतिनियत काल में ही होता है यही उक्त वचनसे सुनिश्चित ज्ञात होता है।
आगमसे तो इसमें सन्देह करने के लिए कोई गुंजाइश रहती नहीं, तर्क और अनुभवसे भी यही सिद्ध होता है। विशेष स्पष्टीकरण पूर्व में विस्तारसे किया है।
अपर पच प्रत्येक कार्यके प्रति बाह्य सामग्रीका उपयोग जानना चाहता है तो उसका यह उपयोग तो निकाल में नहीं हो सकता कि वह अपनेसे भिन्न दूसरे द्रवपके कार्यको स्वयं का बनकर उतान करे । हाँ साया इसमायोय . हमें दुम एप उस समय होनेवाले कार्यको सूचना अवश्य मिल जाती है। इससे हम यह जान सकते है कि इस समय इस प्रकारका उपादान होकर रा द्रव्यने अपना यह कार्य किया है। कोई भी अल्पज्ञानी रागों मनुष्य जितने रूप में इस व्यवस्थाको जानता है उतने छपमें वह वाह्याभ्यन्तर सामत्रीको विकल्प और योगक्रियारूपसे जुटानेका प्रयत्न अवश्य करता है। बाधा. भयन्तर सामग्रीका उसके विकल्प और योगक्रियाके अनुरूप योग मिलना और न मिलना उसके हाथ नहीं है । इच्छानुसार बाह्याम्पतर सामग्रीका योग मिल गया तो रागवश अपनी सफलता मानता है, अन्यथा खेदखिन्न होता है। वह जानता है कि अमुक कुम्भकार अच्छा घरा बनाता है। उसकी प्रार्थनाको कुम्भकार स्वीकार भी कर लेता है । वह वैसी योजना भी करता है, फिर भो जराको इच्छानुसार घड़ा नहीं बनता या बनता ही नहीं । क्यों ? इसलिए नहीं कि बाह्य सामग्री नहीं थी। बल्कि इसलिए कि मिट्टीकी उस समय घटरूप परिणमनेकी द्रब्ध-पर्यायरूप उपादान योग्यता हो नहीं थी। कुम्भकार विचारा या अन्य बाह्यसामग्री उसमें कमा कर सकते थे। इसीको कहते हैं उपादानके कार्य निमित्त व्यवहारके योग्य वाद्यसामग्री का अकिचित्करपना । ऐसो अवस्था में अपर पक्ष ही बतलाय कि अपर पक्षने अपनी कल्पनासे जो समस्याएं खड़ो की हैं वे हमारे निश्चयनयसे किये गये इस कथनका कि 'अपादान से ही कार्य उत्पन्न हो जाता है निमित्त तो वहाँपर अकिचिकर ही बना रहता है।' खण्डन करती है या मण्डन । विचार कर देखा जाय तो अपर पक्षने जो समस्याएँ खड़ी की हैं उनसे हमारे उक्त कथनका मण्डन ही होता है, खण्डन नहीं।
हमने अपने पिछले उत्तर में लिखा था कि 'लौकिक उदाहरणोंको उपस्थित कर अपनी विसत्तिके अनुसार कार्यकारणपरम्पराको बिठलाना उचित नहीं है।' तथा इसी प्रसंगमें हमने समयमारकलाका 'आसंसास्त एव धावति' इत्यादि कलश भी उपस्थित किया था।
इसपर अपर पक्षका कहना है कि 'लोकमें अधिकांश ऐसी प्रवृत्ति देखी जाती है कि प्राणी मोहकर्म के उदयके वशीभूत होकर अपने निमिससे होने वाले कार्यों में अपने अन्दर अहंकारका विकल्प पैदा करता रहता है जो मोहभाव होनेके कारण बन्धका कारण है, अतएव त्याज्य है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि अपने निमित्तसे होनेवाले कार्योंमें अपनी निमित्तलाका ज्ञान होना असत्य है। यदि अपने निमित्तसे होनेवाले कार्यों में अपनी निमित्तलाका ज्ञान भो असत्य हो जाय तो फिर मनुष्य किसी कार्यके करने में प्रवृत्त भी कैसे होगा? कुम्हारको यदि समनामें आ जाय कि घड़े का निर्माण स्नान में पड़ो हई मिट्टी से आनो क्रमवर्ती क्षणिक पर्यायोंके आधारपर स्वतः समय आनेपर हो जायगा तो फिर उसमें तदनुकूल पुरुषार्थ करनेकी भावना ही जागृत क्यों होगो?' आदि ।
। समाधान यह है कि किस कार्यमें कौन निमित्त है इसका ज्ञान होना अन्य बात है और उपादानको मात्र द्रव्यप्रत्यासत्तिहा स्वोकार करके जब जसे बाए निमित्त मिलते हैं तब उनके अनुसार कार्य होता है