Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
View full book text
________________
जयपुर (खानिया ) तस्वचर्चा
पुद्गल तो क्रियावाले भी होते हैं, क्योंकि परिस्पन्द स्वभाववाले होने से परिस्पन्दके द्वारा पृथक् अमरियम पगल मंत्रालय और रूप पद्गल पुनः भेदरूपसे उत्पन्न होते हैं, ठहरते हैं ओर नष्ट होते हैं। तथा जीव भो क्रियावाले होते हैं, क्योंकि परिस्पन्द स्वभाववाले होनेसे परिस्पन्दके द्वारा नवीन कर्म और नोकर्मसे भिन्न जीव उनके साथ मिलने से तथा उनके साथ मिले हुए जीव पुनः भिन्न होने से वे उत्पन्न होते हैं, ठहरते हैं और नष्ट होते हैं ।। १२६ ।
૪૦
इन प्राणोंसे ज्ञात होता है कि पुद्गलों और जीवोंकी जो परिस्पन्दलक्षण क्रिया होती है, गति भी उसीका विशेष है। इसलिए यहाँ भी जो प्रति समय परिस्पन्दरूप परिणाम होता है उसका वाह्य हेतु काल है तथा उसके क्षेत्र से क्षेत्रान्तररूप होने में बाह्य हेतु धर्मद्रव्य है ।
इस प्रकार उक्त विवेचनसे यह भलीभाँति सिद्ध हो जाता है कि जीवों और पुद्गलों में जो भी क्रियालक्षण परिणाम और भावलक्षण परिणाम होता है वह सब अणिक पर्यायोंके क्रमसे ही होता है। इन्हीं दोनों प्रकार के परिणामोंके कारण दो परमाणु मिलकर द्वणुक बनते है । अनन्त परमाणुओंके स्कन्ध बनने का भी यह तरीका है। मिट्टी उसका अपवाद नहीं। अपनी विलक्षण वा भावलक्षण पर्याय सन्ततिमें वह जिस समय क्षेत्रान्तरित होने या पिण्ड, स्थासादि बननेरूप कार्यका उपादान होती है उस समय वह अपने परि
के अनुरूप प्रायोगिक या वैसिक बाह्य निमितोंको प्राप्त कर स्वयं परिणमती रहती है ।
बुद्धिदोषवश यदि कोई मिट्टी आदिको प्रति समय होनेवाली इस आन्तरिक क्रियालक्षण और भावलक्षण उपादान योग्यताको न जानकर केवल बाह्य सामग्री के आधार से उसमें होनेवाले कार्योंकी सिद्धि करता है तो वह वस्तुतः एकान्त से व्यवहार पक्षका आग्रही होनेसे कार्य-कारणपरम्परा के प्रति अनभिज्ञ ही कहा जायगा । स्पष्ट है कि मिट्टीका खेतसे कुम्भकारको निमित्त कर क्षेत्रान्तरित होना, जलादिको निमित्त कर पिण्डरूप परिणमना, कुम्भकार, चक्र, चीवरारादिको निमित्तकर स्थासादिरूप परिणमते हुए घटरूप बनना या दण्डको निमित्त कर अनेक भागों में विभक्त होना आदिरूप जिस समय जो भी क्रियालक्षण या भावलक्षण परिणाम होता है यह उस उस समय के उपादान के अनुसार ही होता है और उस उस समय निमित्त व्यवहारके यंग्य बाह्य सामग्री भी उस उस परिणामके अनुकूल मिलती है। किसी भी द्रव्यमें ऐसा एक भी परिणाम नहीं होता जो प्रतिसमय होनेथाले परिणामक्रम के अन्तर्गत न आता हो । एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में किसी प्रकारकी करामात कर सके ऐसा तो त्रिकालमें सम्भव नहीं हैं । एक द्रव्य दूसरे द्रव्यमें करामात करता है यह कहना तो अतिदूर की बात है ऐसी करामात तो एक ही द्रव्य भिन्न समयमें स्थित होकर उससे भिन्न समयके कार्यकी अपेक्षा स्वयं अपने में नहीं कर सकता। उत्पादादि त्रिलक्षण वस्तुका ऐसा स्वभाव है, उसमें चारा किसका प्रत्येक उत्पाद व्ययलक्षण परिणाम अपने-अपने काल होता है इसके लिए प्रवचनसार गाथा ६६ को आचार्य अमृतचन्द्रकृत टीका व्रष्टव्य है। वहीं लिखा है—
तथैव ते परिणामाः स्वावसरे स्वरूप पूर्वरूपाभ्यामुत्पन्नोच्छन्न वात्सर्वत्र परस्परानुस्यूतिसूत्रितकप्रवाहतयानुत्पन्नप्रलीनश्वाच्च संभूति-संहार-धौन्यात्मकमात्मानं धारयन्ति ।
उसी प्रकार के परिणाम अपने कालमें स्वरूप से उत्पन्न और पूर्व रूपसे विनष्ट होने के कारण तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति सूत्रित एक प्रवाहनेको अपेक्षा अनुत्पन्न-अनिष्ट होनेके कारण उत्पत्ति, संहार और भौव्यस्वरूपको धारण करते हैं ।