Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका ६ और उसका समाधान
जो पर्याय उत्पन्न होती है वह द्रव्यसे कथंचित अभिन्न होने के कारण द्रव्य होती है, इसलिए जब कि दूसरा द्रव्य दूसरे द्रव्यमें कभी भी और किसी भी परिणामको उत्पन्न कर सकता है तो उसे नये दध्यके उत्पन्न करने में कोई बाधा नहीं होनी चाहिए।
इसपर यदि अपर पक्ष कहे कि जिस द्रव्यमें जिस कालमें जो परिणाम होना होता है उस कालमें यही परिणाम होता है इसमें सन्देह नहीं पर उसे उत्पन्न करती है सहकारी सामग्री हो, क्योंकि वह स्वयं उत्पन्न होने में राधा असमर्थ है । तो इसपर हमारा कहना यह है कि वह सहकारी सामग्री दूसरे द्रव्यमें उस परिणामको कैसे उत्पन्न करती है, उसके भीतर घुसकर उसे उत्पन्न करती है या बाहर रहकर ही उसे उत्पन्न कर देती है ? भीतर घुमना तो सम्भव नहीं, क्योंकि एक द्रव्य के स्वचतृष्टयका दूसरे द्रव्य स्वचतुष्टयमें
कालिक अत्यन्ताभाव है। सहकारी सामग्री बाहर रहकर दूसरे द्रव्यमे कार्य कर देतो है यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि सहकारी सामग्री जब कि दूसरे द्रवपसे सर्वथा पृथक् बनी रहती है तो फिर वह उसमें उसका कार्य कैसे कर सकती है अर्थात नहीं कर सकती। इसलिए प्रकृतमें अपर पक्षको यही स्वीकार कर लेना चाहिए कि जड़ या चेतन प्रत्येक द्रव्य अपना कार्य करने में स्वयं समर्थ है, इसलिए जिस कार्यका जो काल है उस कालमें वही कर्ता बन कर अपने में उसे उत्पन्न करता है । अन्यके द्वारा कार्य होता है या अन्य दूसरेको उत्पन्न करता है, ग्रहण करता है, छोड़ता है या परिणमाता है यह सब व्यवहारकथन है । आगममें यह कथन प्रयोजन किया गया है और प्रयोजन है इष्टार्थका ज्ञान कराना, क्योंकि जिसे सहकारी सामग्री कहते है उसके कार्यके साथ उपादानके कार्यको अन्वय-व्यतिरेकसमधिगम्य बाह्य व्याप्ति है अर्थात् दोनोंक एक काल में होने का नियम है, इसलिए इसे कल्पनारोपित नहीं कहा जा सकता। यदि उपचरित कथनको अपर पक्षके मतानुसार कल्पनारोपित अर्थात चंड खानेको गप मान ली जाय तो जगत्का समस्त व्यवहार नहीं बन सकेगा। फिर तो श्री जिन मन्दिर में जा कर देवपूजा करना भी कल्पनारोपित मानना पड़ेगा, क्योंकि प्रतिमा स्थापना तो अपर पक्षके मतानुसार कल्पनारोचित ठहरो, फिर उसके आलम्बनसे पूजा कैसी? यदि कोई किसीको पत्र लिखे तो लिख नहीं सकता है, क्योंकि व्यवहार के लिए जो उसका नाम रखा गया है वह तो कल्पना रोपित है। ऐसी अवस्था में माम लेकर किसी को पत्र लिखना व्यर्थ हो ठहरेगा। अपर पक्षको उपचरित कथनको कल्पनारोपित लिखते समय थोड़ा जमलके इन समस्त व्यवहारोंका विचार करना चाहिए 1 इतना तो हम निश्चयपूर्वक लिख सकते है कि अपर पक्षने यहाँ पर कुम्भकार और मिट्टीको आलम्बन बनाकर जो कार्य-कारणभाव का रूपक उपस्थित किया है वह मात्र एकान्तरूप प्ररूपणा होनेसे कल्पनारोपित अवश्य है। परन्तु जिनागममें निश्चय-व्यवहारका पृथक्करण कर जो प्ररूपणा की गई है वह किसी भी अवस्थामें कल्पनारोपित नही हैं। अतः कोई भी कार्य किसी दूसरेके सहारे पर नहीं होता है ऐसा निश्चय यहाँ करना चाहिए। दूसरे के सहारेका कथन करना मात्र व्यवहार है जो उपचरित होनसे यथार्थ पदवीको नहीं प्राप्त हो सकता।
प्रत्येक द्रव्य स्वयं सत् है और द्रव्यका लक्षण है गुण-पर्यायवाला, इसलिए द्रव्यके स्क्यं सत् सिद्ध होने पर गुण और पर्याय भी स्वयं सत् सिद्ध होते है । यतः पर्याय व्यतिरेकी स्वभाववाला है, अत: जिस पर्याय का जो स्त्रकाल है उस काल में उसे परनिरपेच स्वयं सत् हो जानना चाहिए, अन्यथा प्रध्य और गुणोंका अस्तित्व ही नहीं बन सकता। इसलिए अपर पक्षका यह लिखना कि 'कार्योत्पत्ति के लिए उपादानको तैयारो निमित्तोंके बल पर ही हुआ करती है।' आगमबिरुद्ध ही समझना चाहिए । वस्तुतः कोई किसीकी तैयारी नहीं करता, एक द्रव्यमे जिसके बाद जो होता है उसे उपादानकारण कहते है और होनेवालेको कार्य कहते