Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका ६ और उसका समाधान
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एक बात और है कि यदि असद्भूत व्यवहारनयका विषय अवास्तविक अर्थात् कल्पनारोपित होकर, हो है तो फिर उसके (असद्भूत व्यवहारनपके) उपचरित असद्भूत व्यवहारनय और अनुपचरित असदुद्भूत व्यवहारनय ऐसे दो भेद करना असंगत ही हो जायगा । कारण कि अभावात्मक वस्तु उपचरित और अनुपचरितका भेद होना असंभव हो है ।
बृहद्रव्यसंग्रह में असभूतथ्यवहारनयके उक्त अनुपचरित अद्भूतभ्यवहारय ओर उपचरित अस द्भूतव्यवहारमय वो उनके आय हो के बृहद्रव्यसंग्रहकर्ता की दृष्टि में अद्भूत वहातयका विषय असद्भूत व्यवहार अभावात्मक वस्तु न होकर भावात्मक वस्तु ही है। दोनोंका अन्सर भी बिल्कुल स्पष्ट मालूम पड़ रहा है अर्थात् जीवमें पाया जानेवाला ज्ञानावरणादि आठ कम तथा औदारिक नादि शरीरोंका कर्तृत्व अनुपचारित अमदभूत व्यवहार है और उसमें ( जीव में ) पाया जानेवाला घटपटादि पदार्थोका कस्य उपचरित असद्भूत व्यवहार है। इस भेदका कारण यह हैं कि ज्ञानावरणादि कर्मों और औदारिक आदि शरीरोंका निर्माण जीव अरनेसे अथक् रूपये ही किया करता है तथा घटपटादिका निर्माण वह अपने से पृथक् रूपमें किया करता है ।
यदि कहा जाय कि तत्त्वार्थसूत्र के सूत्र 'सद्यलक्षणम्' (अ० ४ सू २९ ) के अनुसार सत्य वस्तुका निज स्वरूप होते हुए भी उसे तत्वार्थसूत्र के सूत्र' 'उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत्' ( अ० ५ सूत्र ३० ) के अनुसार उत्पाद, व्यय और प्रोव्य स्वभाववाला स्वीकार किया गया है। इसका फलितार्थ यह है कि वस्तु परिणमन स्वभावसे ही हुआ करता है । उसमें निमित्तकारणके सहयोगको आवश्यकताको स्वीकार करना अयुक्त ही है।
तो इस विषय में हमारा कहना यह है कि 'उत्पादव्ययत्रौव्ययुक्तं सत्' इस सूत्र के अनुसार वस्तु परिणमनस्वभावाली है - यह तो ठीक है, परन्तु वह परिणमन स्वप्रत्यय के समान स्वपरप्रत्यय भी होता है। इसका निषेध तो उषत सूत्रसे होता नहीं है। यही कारण है कि वस्तु के स्वपरप्रत्यय परिणमनोंकी सत्ता आगम में स्वीकार की गयी है तथा जैव-तत्त्वमीमांसा में श्री पं० फूलचन्द्रजीने और प्रश्न नं० ११ में आपने मी वस्तुके स्वपरप्रत्यय परिणमनोंको स्वीकार किया है। अतः आपके द्वारा अपने प्रत्युत्तर में यह लिखा जाना कि
'जब प्रत्येक द्रव्य सद्रूप है और उसको उत्पाद व्यय-त्रीय स्वभाववाला माना गया है तो ऐसी अवस्था में उसके उत्पाद व्ययको अन्य द्रव्य के कर्तृरित्र पर छोड़ दिया जाय और यह मान लिया जाय कि अन्य द्वभ्य जब चाहें उसमें किसी भी कार्यको उत्पन्न कर सकता है तो यह उसके स्वतंत्र सत् स्वभावपर आघात ही है । 'असंगत हो है । आपको परिणमनकी स्वपरप्रत्ययता भले ही विडम्बना प्रतीत होती हो, परन्तु यह व्यवस्था आगम के साथ-साथ प्रत्यक्ष और तर्कके भी प्रतिकूल नहीं है। यह बात पूर्वमें विस्तारपूर्वक सिद्ध की जा चुकी है।
धाचायोंने जो प्रत्येक कार्य में अपने उपादान के साथ अन्तयधिक और निमित्तांके साथ बहियति स्वीकार की है उसका आशय यही है कि उपादान चूंकि कार्यह परिणत होता है, अतः उसके साथ कार्यकी मिलता होने के कारण वहाँ अन्तरंग व्याप्ति बतलायी गयी है और निर्मित चूंकि कार्यरूप परिणत नहीं होता, वह तो केवल कार्योत्पत्ति में सहयोगी होता है इसलिये उसके साथ कार्यको पृथकता बनी रहने के कारण वही बहिर्व्याप्ति स्वीकार की गयी है। पूर्वमे हम बता भी चुके हैं कि उपादानको कार्यके साथ एकद्रव्य
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