Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा ऐसे व्यवहारमै निश्चयका ज्ञान हो तो ही इस प्रकारका व्यवहार करना उपयोगी है । इसी बातको स्पष्ट करते हुए अनगारधर्मामृत अध्याय एकमें कहा है--
काया वस्तुनो भिन्ना येन निश्चयसिद्धये ।
साध्यन्तै व्यवहारोऽसौ निश्चयस्तदभेदरक ॥१०२॥ जिससे निश्चयकी प्रसिद्धि के लिए वस्तु से भिन्न कत्ती आदिक जाने जाते हैं यह व्यवहार है और उन कर्ता आदिकको वस्तुसे अभिन्न प्रतिपत्ति का नाम निश्चय है ॥१०२।।
यह आगमप्रमाण है । इसमें स्पष्ट बतलाया गया है कि जिससे निश्वयको सिद्धि हो उसीका नाम व्यवहार है और इसी लिए उपचरित होने पर भी आगममें वह स्वीकार किया गया है। इस तथ्यको ध्यान में रखकर जब हम निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धके ऊपर दृष्टिपात करते हैं तो हमें इस बात समझने में देर नहीं लगती कि उपादान कारणसे भिन्न अन्य वस्तुमें किया गया निमित्त व्यवहार असदभत होने के कारण उपचरित क्यों माना गया है ! यहाँ जिस वस्तुमै निमित्त व्यवहार किया गया है वह अन्य द्रव्यके विवक्षित कार्यका यथार्थ कारण तो नहीं है फिर भी उसको उस कार्यके उपादानकारणके साथ कालप्रत्यासत्तिरूप बाह्य व्याप्ति अवश्य है और इसी कारण उपादानमें रहनेवाला जो कारण धर्म, उसकी सिद्धि इसके द्वारा हो जाती है, इसीलिए इस बाह्य वस्तुमें भी निमित्त अर्थात् कारण धर्मका उपचार कर लिया जाता है। यही उपचार असद्भूत व्यवहारका अर्थ है और जो ज्ञान ऐसे अर्यको जानता है उस ज्ञानको अद्भूत व्यवहारनय कहते हैं । यह असद्भुत व्यवहारनयका तात्पर्य है।
यह तो प्रथम उपचार हुभा । अब यदि उपादानभूत वस्तुमैं रहनेवाले कर्ता आदि धर्माका निमित्तरूपसे स्वीकृत अन्य वस्तुमै आरोप किया जाता है तो ऐसा एक उपचारके बाद भी पुनः उसो वस्तुमैं किया गया उपचाररूप अर्थ उपचरित असद्भूत व्यवहारनयका विषय होगा। आवार्य कुन्दकुन्दने सामान्यतया समयसार गाया १०५ में इसी उपचरित असद्भुत व्यवहारका निर्देश किया है, किन्तु यहाँ इसना विशेष जानना चाहिए कि जीवका और कर्मों का निमित्त-नमित्तिकसम्बन्धरूपसे पहलेसे ही संश्लेष सम्बन्ध चला प्रा रहा है, इसलिए जीवके राग-द्वेष आदि परिणामोंको निमित्तकर जो कर्मबन्ध होता है वहाँ जीवके परिणामों में कर्मोको करनेरूप कर्ताधर्मका उपचार हो मुख्य है। प्रतएव जीवने कर्मोको किया ऐसा कहना अनुपचारित असद्भुत व्यवहार ही होगा। समयसार गाथा १०५ में इसी अभिप्रायकी मुख्यतासे उपचार शब्दका प्रयोग हुआ है।
तात्पर्य यह है कि जहाँ पर संश्लेष सम्बन्ध नहीं है वहाँ तो एक वस्तुके कर्ता आदि धर्मका दूसरी वस्तुमें आरोप करनेका नाम उपचरित असद्भूतव्यवहार है और जहाँ पर निमित्त नैमित्तिकभावसे परस्पर संश्लेषसम्बन्ध है वहाँ पर एक वस्तुके कर्त्ता आदि धर्मका दूसरी वस्तु में आरोप करनेका नाम अनुरचरित असद्भूतव्यवहार है । उन्च अर्थको स्पष्ट करते हुए बृद्रव्यसंग्रह गाथा आठमें लिखा है
मनोवचनकायव्यापारक्रियारहितनिज शुवात्मतत्त्वभावनाशून्यः सन्ननुपञ्चरितासद्भूतन्यवहारेण ज्ञानावरणादिवब्यकर्मणामादिशब्देनौदारिकवैक्रियिकाहारकत्रयाहारादिषट्पर्याप्तियोग्यपुद्गलपिण्डरूपनोकर्मणा तथैवोपचरितासद्भुतन्यवहारेण पहिर्षिषधटपटादीनां च कर्ता भवति ।
मन बचन और कायके व्यापारसे होनेवाली क्रियासे रहित ऐसा जो निज शुधात्मतत्त्व उसको