Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर (खानिया ) तव चर्चा
नैमित्तिक व्यवहारको उपचरितरूपसे स्वीकार करता है उसका वैसा स्वीकार करना मिथ्या कैसे माना जायेगा ? अव प्रकृतमें यही समझना चाहिए कि बागममें जिस वस्तुको जिस रूप में स्वीकार किया गया है उसको उसी रूपमें ग्रहण करना यही सच्चा सम्यग्ज्ञान है और अन्यथा रूपसे महण करना यही मिथ्याज्ञान है ।
आचार्य विद्यानन्दिने उक्त दार्तिकोंद्वारा क्षणिकान्त और नित्यैकान्तका निरास कर बन्ध-मोक्ष araस्था कैसे बनती है और व्यवहारमय साध्यसाधनभावका क्या स्थान है इसका सम्यक्प्रकारसे विचार किया है सो इसे समझकर ही उसका निर्णय करना यही प्रत्येक सम्यग्जानी जीवका कर्तव्य है । इस विषयको स्परूप से समझने के लिए तत्त्वार्थवातिक अ० १ सूत्र २ का यह वचन पर्याप्त होगा
स्व- परनिमित्तस्वादुत्पादस्येति चेत् ? म उपकरणमाश्वात् ॥११॥ स्याददेत् स्व-परनिमित्त उत्पादो दृष्टः । यथा घटस्योत्पाद मृत्रिमतो दण्डादिनिमित्तश्च । तस्मात्तस्यापि मोक्षकारणत्वमुत्पद्यते इति १ तत किं कारणम् ? उपकरणमात्रश्वात् । उपकरणमात्रं हि बाह्यसाधनम् । किच-
आत्मपरिणामादेव तदसघातात् ॥१२॥ यदिदं दर्शन मोहाल्यं कर्म तदात्मगुणघाति, कुतश्चिदारम परिणामादेषोपक्षीणशक्तिकं सम्यक्त्वाख्यां । अतो न तपस्विमस्य प्रधानं कारणम्, आमैच स्वशक्स्या दर्शनपर्यायेणोत्पद्यत इति तस्यैष मोक्षकारणत्वं युक्तम् ।
प्रश्न - उत्पाद स्वरनिमित्तक होता है ?
उत्तर - नहीं, क्योंकि बाह्यसाधन उपकरणमात्र है ॥ ११ ॥
यदि कोई कहे कि उत्पाद स्वस्परनिमित्तक देखा गया है। जैसे घटका उत्पाद मिट्टीनिमित्तक और दण्डादिनिमित्तक होता है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शनका उत्पाद आत्मानिमित्तक और सम्यकत्व पुद्गलनिमित्तक होता | इसलिए सम्यकत्व पुद्गलमें भी मोखकी कारणता बन जाती है, उसका ऐसा कहना ठीक नहीं है सम्यकत्व पुद्गल उपकरणमात्र है। बाह्य साधन नियमसे उपकरणमात्र है ।
आरमाके परिणामसे ही उसके रसका बात होता है ॥ १२ ॥
जो यह दर्शनमोह नामका कर्म है वह आत्माके गुणका बाती है । अतएव किसी आत्म-परिणामको ही निमित्तकर उपक्षोण शक्तिवाला होकर वह सम्यक्त्व इस संज्ञाको प्राप्त होता है। इसलिए वह आरमाके परिणामका प्रधान हेतु नहीं है। आत्मा ही अपनी शक्ति से दर्शनपर्यायरूपये उत्पन्न होता है, इसलिए उसीके मोक्षकी कारणता युक्त है ।
शक्तिके बलसे उपादान ध्वंस करता है। हमने
इस प्रकार इस विवेचनसे स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक द्रथ्य स्वयं अपनी होकर प्रत्येक समय में अपनी नई पर्यायको उत्पन्न करता है और पुरानी पर्यायका अपने प्रथम उत्तर में तत्त्वावलोकवार्तिक के जिस उचरणका उल्लेखकर यह सिद्ध किया है कि निश्चयनयसे प्रत्येक द्रव्य स्वयं उत्पाद-व्यय-लौभ्यस्वभाववाला होनेसे उसमें उत्पाद-व्ययको व्यवस्था विससा ही बनती है। और व्यवहारनयसे ही उसका उत्पाद व्यय सहेतुक प्रतीत होता है, सो हमारा यह कथन तत्त्वार्थवार्तिकके उक्त उल्लेखको दृष्टिमें रखते हुए साधु ही प्रतीत होता है । हम तो अपर पक्षसे ही यह मापा लगाये हुए हैं कि वह भी प्रत्येक उपादानको अनेक योग्यतावाला न स्वीकार करके मात्र प्रतिनियत योग्यताबाला स्वीकार करके हो प्रतिनियत कार्यको व्यवस्थाको मान्य करते हुए निमित्तनैमित्तिक व्यवहारको उपचरित