Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्चा
कार्यकी क्रियाको कर सकता है यह कथन तो अपर पक्षको भी मान्य नहीं होगा। अतएव यही सिद्धान्त स्थिर होता है कि एकमात्र कालप्रत्यासत्तिको दृष्टिमे रखकर ही बाह्य-सामग्रीमें कारणताका उपचार किया गया है। अतएव बाह्य-सामग्री में जो निमित्त कारणता स्वीकार को गई है उसे वास्तविक न मानकर उपरित ही मानना चाहिये।
बैसे कृत्तिकानक्षत्रका उदय अन्तर्मुहुर्तबाद शकटनक्षत्रके उदयका नियमसे बापक है, क्योंकि इन धोनोंके उदय में ऐसा नियम पाया जाता है कि कृसिकानक्षत्रका उदय होनेपर अन्तमुंहतंबाद नियमसे शकटनक्षत्रका उदय होगा वैसे ही विवक्षित कार्यके होनम जो सामग्री व्यवहारसे निमित्त होती है उन दोनों के एक काल में होनेका नियम है । इसीका नाम कार्यकी कारणके साथ बाह्य व्याप्ति है और इसे ही कार्यके प्रति कारणको अनुकूलता व समग्रता कहते है। अतएव बाह्य सामग्री दुमरे द्रव्यके कार्यका यथार्थ कारण न होनेपर मो वह उसका उपचरित कारण कहा गया है और इसी आधारपर उसका कार्यके साथ अन्वय-व्यतिरेक भी बन जाता है, तब व्यवहारनयसे यह कहनेमें आता है कि उपादानकारण हो और बाह्म-सामग्री न हो सो कार्य नहीं होता। यहाँपर उपादान कारणका अर्थ व्यवहार उपादानकारण लेना चाहिए, निश्चय उगादान कारण नहीं। इस विषयका विशेष खुलासा हमने शंका पाँचके तुतीय उत्तरमै विस्तारसे किया है. इसलिए उसे वहसि जान लेना चाहिए। यहाँ शकट और कृत्तिकानक्षत्रका उदाहरण कार्यकारणभावको वृष्टिसे नहीं दिया है, केवल क्रमका ज्ञान करानेके अभिप्रायसे दिया है।
६. तत्त्वार्थश्लोकवार्षिकके उल्लेखका तात्पर्य
पर पक्षने तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक पृष्ठ १५१ का एक उल्लेख उपस्थित कर हमारे कथमकी अप्रामाणिकता घोषित करते हुए अपने कथनको बड़ी संजीदगीके साथ प्रामाणिक घोषित करनेका प्रयत्न किया है, किन्तु उस पक्षने जिस उतरणको उपस्थित कर अपनी कल्पनाको प्रामाणिक घोषित किया है, उसी उद्धरणके बाद आये हुए इस दाक्यपर यदि वह दृष्टिपात करता तो सम्भव था कि वह अपने विचारोंको परिवर्तित करने के लिए प्रस्तुत हो जाता । आचार्य विद्यानन्दिने द्विष्ठ कार्यकारणभावको व्यवहारनयसे पद्यपि पारमाधिक बताकर कल्पनारोपितपनेका निषेध किया है, परन्तु वहींपर वे संग्रहनय और ऋजसूत्रनयकी अपेक्षा उसे कल्पनामात्र भी प्रसिद्ध कर रहे हैं। सो क्यों? क्या दोका सम्बन्ध बास्तविक नहीं है जिससे संग्रहनय और ऋजसूत्रनय से कल्पनामात्र बतलाकर उसका निषेध करते है। स्पष्ट है कि व्यवहारमयका अर्थ ही प्रकृतमें असद्भुत व्यवहारमय है और असमतव्यबहारको आयायाने उपचार कहा ही है। इसके लिए आलापपद्धतिका प्रमाण हम पूर्वम ही दे आये है। इससे सिद्ध हुआ कि बाह्य-सामग्री को अन्य द्रव्य के कार्यका निमित्त कहना उपचार है और उस कार्यको बाह्य-सामग्रीका नैमित्तिक कहना यह भी उपचार है। इसप्रकार निमित्तनैमित्तिक भावको उपचरित सिद्ध होनेपर उपादान-उपादेय भाव हो वास्तविक ठहरता है, निमित्त. नैमित्तिकभाव नहीं। फिर भी आचार्य विद्यानन्दिने जो द्विष्ठ कार्यकारणभावको कल्पनारोपित पनेका निषेध करके पारमाथिक कहा है सो उसका कारण अन्य है। बात यह है कि किसीका किसी में उपचार धर्मविशेषको देखकर ही किया जाता है। जैसा कि हम तस्वार्थबात्तिक अध्याय १ सूत्र ५ का उल्लेख दे करके बतला आये है कि जिस पालकमें सिंहके समान अंशत: क्रौर्य और शौर्य आदि गुण पाये जाते है उसोम ही सिंहका उपचार कर 'माणयकोऽयं सिंह:-यह बालक सिंह है यह कहा जाता है। जसी प्रकार जिस वाह्य-सामग्री में निमित्त व्यवहार किया जाता है उसमें भी उपादानके समान अपने कार्यके